बुधवार, 5 नवंबर 2025

ऊषा गांगुली : भारतीय रंगमंच की मर्मज्ञ साधिका

ऊषा गांगुली : भारतीय रंगमंच की मर्मज्ञ साधिका

ऊषा गांगुली : हिंदी रंगमंच की नारी दृष्टि और यथार्थ का आत्मसंघर्ष

भारतीय रंगमंच के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो न केवल अपनी प्रतिभा से, बल्कि अपनी वैचारिक दृष्टि और सामाजिक प्रतिबद्धता से भी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऊषा गांगुली उन्हीं विशिष्ट व्यक्तित्वों में से एक थीं। वे एक ऐसी नाट्यकर्मी थीं जिन्होंने हिंदी रंगमंच को बंगाल की धरती पर प्रतिष्ठित किया, और सामाजिक यथार्थ को मंच पर जीवंत कर दिखाया। अभिनेत्री, निर्देशक, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता — ऊषा गांगुली का जीवन रंगमंच की निरंतर साधना का पर्याय था।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

ऊषा गांगुली का जन्म 20 जनवरी 1945 को कोलकाता में हुआ था। साहित्य और नाट्यकला के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही थी, किंतु उस समय किसी को यह आभास भी नहीं था कि वे एक दिन भारतीय रंगमंच की दिशा ही बदल देंगी। शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने अध्यापन को अपने पेशे के रूप में चुना। अध्यापन के साथ-साथ वे रंगमंच से भी जुड़ी रहीं, और यही जुड़ाव धीरे-धीरे उनके जीवन का केंद्र बन गया।

सत्तर के दशक में ऊषा गांगुली ने रंगमंच की दुनिया में कदम रखा। प्रारंभिक दौर में उन्होंने विभिन्न बंगाली नाट्य संस्थाओं के साथ काम किया, परंतु शीघ्र ही उन्हें यह महसूस हुआ कि हिंदी रंगमंच के लिए बंगाल में पर्याप्त मंच नहीं हैं। इसी सोच ने उन्हें 1976 में अपनी नाट्य संस्था ‘रंगकर्मी’ की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया। ‘रंगकर्मी’ ने धीरे-धीरे कोलकाता के रंगमंच पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। इस संस्था ने हिंदी नाट्य परंपरा को बंगाली दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया और हिंदी रंगमंच को पूर्वी भारत में नई ऊर्जा प्रदान की।

ऊषा गांगुली का निर्देशन सदैव सामाजिक सरोकारों से जुड़ा रहा। वे रंगमंच को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का औजार मानती थीं। उनके नाटकों में स्त्री की स्थिति, वर्गभेद, हिंसा, शोषण और मानवीय संवेदनाओं के विविध आयाम देखने को मिलते हैं। उन्होंने अपने कार्य से यह सिद्ध किया कि रंगमंच समाज का आईना ही नहीं, बल्कि परिवर्तन का औजार भी है। परंतु उनके रंगमंच का महत्त्व केवल सामाजिक यथार्थ की प्रस्तुति तक सीमित नहीं था — उसमें स्त्री की चेतना, वर्ग-संघर्ष की जटिलता और रंगमंच की सौंदर्य-दृष्टि, तीनों का समागम हुआ।

“महाभोज” – मन्नू भंडारी के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित यह नाटक ऊषा गांगुली के निर्देशन में एक सशक्त राजनीतिक वक्तव्य बन गया। इसमें सत्ता, भ्रष्टाचार और जनसंघर्ष के तीखे चित्रण ने दर्शकों को झकझोर दिया। “रूदाली” – महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित इस नाटक में ऊषा गांगुली ने समाज में स्त्री की त्रासदी को करुण यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया। यह नाटक उनकी पहचान का प्रतीक बना और भारत के साथ विदेशों में भी खूब सराहा गया। “होली” – महेश एलकुंचवार के नाटक का यह मंचन मनोवैज्ञानिक गहराई और सांस्कृतिक प्रतीकों से भरा हुआ था। “कोर्ट मार्शल”, “लोककथा”, “अंतिगोनी”, “हजार चौरासी की माँ”, और “काशीनामा” जैसे नाटकों में भी उनकी सामाजिक दृष्टि और सौंदर्यबोध स्पष्ट रूप से झलकता है।
ऊषा गांगुली के निर्देशन में नाट्य की दृश्य संरचना अत्यंत सटीक होती थी। उनके मंचन में प्रतीकों और प्रकाश के प्रयोग से गहन भावनात्मक वातावरण निर्मित होता था। वे संवादों की बजाय दृश्य-भाषा के माध्यम से संवेदनाओं को अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती थीं। यहाँ उनकी दृष्टि केवल नाट्य पुनरावृत्ति की नहीं, बल्कि पुनर्संरचना की थी। उन्होंने साहित्यिक कृतियों को मंचीय भाषा में रूपांतरित करते समय दृश्य-यथार्थ को प्रतीकात्मक संरचना में ढाला — जिससे सामाजिक पीड़ा न केवल कहानी का विषय रही, बल्कि मंच की देहभाषा बन गई। 

एक अभिनेत्री के रूप में ऊषा गांगुली ने भारतीय रंगमंच को कई यादगार भूमिकाएँ दीं। वे स्वयं भी अपने नाटकों में अभिनय करती थीं। “रूदाली” में संनिचरी की भूमिका में उनका अभिनय आज भी भारतीय रंगमंच के इतिहास में अमर है। उनकी अभिनय शैली में गहरी अंतर्दृष्टि, नियंत्रित भावाभिव्यक्ति और मानवीय पीड़ा का सजीव चित्रण देखने को मिलता था।

ऊषा गांगुली का रंगमंच केवल कलात्मक प्रयोगों तक सीमित नहीं था। वे स्त्री अधिकारों और सामाजिक न्याय के प्रश्नों को केंद्र में रखती थीं। उनके नाटकों में नारी अपने अस्तित्व की तलाश करती दिखाई देती है। “रूदाली”, “महाभोज” और “काशीनामा” जैसी प्रस्तुतियाँ स्त्री की संवेदनशीलता, संघर्ष और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गईं। इसके अतिरिक्त वे झुग्गी-बस्तियों के बच्चों के लिए नाट्य कार्यशालाएँ भी आयोजित करती थीं और समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को रंगमंच के माध्यम से अभिव्यक्ति का अवसर देती थीं। ऊषा गांगुली का रंगमंच शुद्ध यथार्थवादी नहीं था। वे मंच को केवल घटनाओं का प्रस्तुतीकरण नहीं मानती थीं, बल्कि उसे “भाव-संरचना” (emotional architecture) के रूप में देखती थीं। उनके निर्देशन में दृश्य-प्रतीक, प्रकाश, वेशभूषा और संगीत — सभी संवाद का हिस्सा बन जाते थे।

ऊषा गांगुली का रंगकर्मी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चित रहा। उनके नाटकों का मंचन यू.के., पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में हुआ। हिंदी रंगमंच को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठा दिलाने में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। भारत सरकार ने उन्हें 1990 में ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें पश्चिम बंगाल राज्य अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री (2015) और अनेक अन्य सम्मानों से भी नवाजा गया।

प्रशिक्षिका के रूप में ऊषा गांगुली ने सैकड़ों विद्यार्थियों को नाट्यकला का प्रशिक्षण दिया। वे मानती थीं कि रंगमंच केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि शिक्षा और चेतना का माध्यम है। उनके निर्देशन में नाटक पढ़ना, लिखना और प्रस्तुत करना एक संवाद की प्रक्रिया बन जाता था। उनकी शिक्षण पद्धति में अनुशासन, संवेदना और सामाजिक दृष्टि तीनों का सुंदर संतुलन दिखाई देता था।

ऊषा गांगुली का जीवन अंतिम दिनों तक सक्रिय रहा। वे वृद्धावस्था में भी रंगकर्मी संस्था से जुड़ी रहीं और युवा कलाकारों का मार्गदर्शन करती रहीं। 23 अप्रैल 2020 को हृदयाघात से उनका निधन हुआ। उनकी संस्था ‘रंगकर्मी’ आज भी उनके विचारों और रंगदृष्टि को आगे बढ़ा रही है। 
ऊषा गांगुली का रंगमंच न तो केवल स्त्री विमर्श था, न केवल राजनीतिक प्रतिरोध — वह जीवन के सम्पूर्ण यथार्थ का एक आत्मसंघर्ष था। उनके रंगकर्म में करुणा और क्रांति दोनों साथ चलते हैं। वे मंच पर केवल कहानियाँ नहीं कहती थीं; वे समाज के मौन को स्वर देती थीं। ऊषा गांगुली ने भारतीय रंगमंच को भाव और विचार के संतुलन की नयी भाषा दी। उनके नाटकों ने दर्शकों को केवल रुलाया नहीं, उन्हें सोचने पर मजबूर किया। यही किसी भी सच्चे रंगकर्मी की पहचान है — और इसी अर्थ में ऊषा गांगुली भारतीय रंगमंच की एक युग-निर्माता शख्सियत हैं।

ऊषा गांगुली का नाम भारतीय रंगमंच के इतिहास में एक ऐसी शख्सियत के रूप में दर्ज है जिन्होंने भाषा, संस्कृति और समाज के बीच की दीवारें तोड़ीं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कला तभी सार्थक है जब वह समाज की धड़कनों से जुड़ी हो। वे न केवल रंगकर्मी थीं, बल्कि एक आंदोलन थीं — एक ऐसी स्त्री जिन्होंने मंच को अपने विचारों की आवाज़ बनाया और रंगमंच को लोक और जीवन के निकट ले आईं। उनकी नाट्ययात्रा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनी रहेगी — एक ऐसी यात्रा जिसमें कला और सामाजिक चेतना एक-दूसरे के पूरक हैं।

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