“कला जो सजाती नहीं, जगाती है।”
लखनऊ की मिट्टी में एक अजीब जादू है —
यहाँ ज़ुबान भी शराफ़त से बोलती है और विरोध भी तहज़ीब में लिपटा होता है। इसी मिट्टी ने जन्म दिया उस रचनाकार को,
जिसने रंगमंच को केवल मनोरंजन नहीं, जनचेतना का औजार बना दिया। वह थे — मुद्राराक्षस।
नाम ऐसा, जो एक साथ चौंकाता भी है और अर्थ का नया संसार भी खोल देता है।
सुभाष चंद्र आर्य से ‘मुद्राराक्षस’ बनने की यह यात्रा, दरअसल एक लेखक के भीतर उठती उस बेचैनी की कहानी है, जो शब्दों में सुलगती है और मंच पर आग बनकर जल उठती है।
लखनऊ की रगों में बसा रंग
21 जून 1933 — बेहटा, लखनऊ की एक सुबह। हवा में अवधी का अपनापन था, और इतिहास की सांझ में नया देश आकार ले रहा था। इसी वातावरण में जन्मे मुद्राराक्षस ने लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा ली, पर सीखा समाज से — उस समाज से जो तब भी वर्ग, जाति और सत्ता की दीवारों में बँटा था। उन्होंने महसूस किया कि जब तक आदमी की सोच पर डर का पहरा है, कला की कोई आज़ादी नहीं। यहीं से शुरू हुई उनकी यात्रा—रंगमंच के ज़रिए समाज से संवाद करने की यात्रा।
‘मुद्राराक्षस’ — विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक का वह मंत्री जो छल के विरुद्ध नीति का प्रतीक था। मुद्राराक्षस जी ने यही नाम इसलिए अपनाया, क्योंकि वे सत्ता के दरबार में नहीं, सत्य के मंच पर खड़े लेखक थे। उनकी दृष्टि में लेखक वही है, जो तख़्त से नहीं, ज़मीर से सवाल करता है। “लेखक अगर सबको पसंद आने लगे, तो समझो उसने सच्चाई से मुँह मोड़ लिया।” मुद्राराक्षस के लिए नाटक कभी तमाशा नहीं था। वह जनजीवन का साक्षात्कार था, जहाँ हर पात्र अपने समय का गवाह बनता है। उन्होंने मंच को ‘लोक’ से जोड़ा, और कला को सत्ता से अलग किया। उनके नाटक दर्शकों से संवाद नहीं, मुक़ाबला करते हैं।
उनकी प्रमुख कृतियाँ —
‘आला अफ़सर’, ‘बदबख़्त बादशाह’, ‘दंडविधान’, ‘कालातीत’, ‘हस्तक्षेप’, ‘आत्माराम’ आदि समाज की दुखती नब्ज़ पर उँगली रखती हैं।
आलाअफसर नाटक - व्यंग्य का दरबार
‘आला अफ़सर’ में मुद्राराक्षस एक छोटे कस्बे की नौकरशाही का ऐसा चित्र खींचते हैं
जो आज भी हमारे आसपास दिखता है।
एक काल्पनिक आला अफ़सर के आने की अफ़वाह पूरे शहर को भ्रष्ट बना देती है —
हर अधिकारी झूठे दिखावे में मग्न,
हर व्यक्ति डर की गिरफ्त में। यह नाटक सत्ता के भय की मनोविज्ञानिक व्याख्या है। वह दिखाता है कि डर ही सबसे बड़ा अफ़सर है। भाषा में अवधी की मिठास है, और व्यंग्य में लखनऊ का नमक। संवाद ऐसे हैं जो हँसाते भी हैं और भीतर तक चुभ जाते हैं-“हमारे यहाँ ईमानदारी की पोस्ट खाली पड़ी है पर कोई आवेदन देने की हिम्मत नहीं करता।” ‘आला अफ़सर’ में मुद्राराक्षस ने ब्रेख्तीय दूरीकरण को भारतीय लोकशैली में ढालकर रंगमंच को विचार का अखाड़ा बना दिया।
‘बदबख़्त बादशाह’ : सत्ता का आत्मसंवाद
‘बदबख़्त बादशाह’ उनके सबसे गूढ़ और दार्शनिक नाटकों में है। यह एक ऐसे शासक की कथा है जो सत्ता की ऊँचाई पर है,
पर भीतर से भय और एकांत में घिरा है।
मंच पर यह नाटक रोशनी और छाया, ध्वनि और मौन का अद्भुत संयोजन है।
बादशाह के संवाद अपने आप से संवाद बन जाते हैं — एक मानसिक रंगभूमि जहाँ सत्ता की चुप्पी सबसे बड़ा शोर है। “राजा के पास सब है — दरबार, तलवार, तख़्त, बस एक चीज़ नहीं — यकीन।” मुद्राराक्षस यहाँ ‘नेपथ्य’ की तकनीक से दृश्यहीन घटनाओं को प्रकट करते हैं
लोक और आधुनिकता का संगम
मुद्राराक्षस के नाटक में लोकगीत, कवित्त, संवाद और प्रतीक समान रूप से नृत्य करते हैं। उनकी रंगभाषा गंगा-जमुनी तहज़ीब से सनी हुई है। वह आधुनिकता को लोक की लय में पिरोते हैं।
उनके मंच पर ‘वाचक/सूत्रधार/नट, नाती’ आदि पात्र अक्सर दिखाई देता है — जो कथा कहता है, समाज पर टिप्पणी करता है,
और दर्शक को सोचने पर मजबूर करता है।
यह प्रयोग भारतीय पारंपरिक रंगमंच और पाश्चात्य के बर्तोल्त ब्रेख्त की शैली से मिलता है, पर मुद्रा जी लेखनी में स्वाद पूरी तरह भारतीय है।
विचार की निष्ठा, विचारधारा से परे
मुद्राराक्षस किसी एक विचारधारा के लेखक नहीं थे, बल्कि विवेक के लेखक थे। किसी की दासता नहीं स्वीकारी। मुद्रा जी का लेखन वर्ग और जाति के संघर्षों को
संवेदनशील यथार्थ में रूपांतरित करता है। वे कहते थे — “कला वही है जो आदमी को आदमी से मिलाए।”
मुद्राराक्षस ने हिंदी नाट्य-आलोचना को नई दिशा दी। आपकी पुस्तकें ‘हिंदी नाटक और रंगमंच’, ‘सृजन की सामाजिकता’, ‘नाट्य और समय’ — आज भी नाट्य अध्ययन और विवेचना के ग्रंथ माने जाते हैं। बाल-साहित्य में मुद्रा जी ने न्याय और कल्पना का संतुलन रचा। उनकी कहानियों में बच्चों के ज़रिए बड़ों की मूर्खता पर व्यंग्य किया गया है।
लखनऊ की तहज़ीब में विद्रोह की चमक
लखनऊ ने उन्हें भाषा दी और उन्होंने लखनऊ को आवाज़ दी। उनकी लेखनी में नफ़ासत है, मगर भीतर लावा भी। वे वही कहते थे जो ‘कहना जरूरी’ था, भले उससे किसी का दरबार नाखुश क्यों न हो जाए।
कई बार तो यह वाक्य सीधा आता था कि “मैं लखनऊ का हूँ, इसलिए मुस्कराकर विरोध करता हूँ।”
13 जून 2016 को मुद्राराक्षस इस धरती से विदा हुए, पर उनके शब्द अब भी मंच पर जीवित हैं — कभी नुक्कड़ पर, कभी विश्वविद्यालय के सभागार में, कभी किसी अभिनेता की आँखों में जो असलियत कहना चाहता है। आज जब अभिव्यक्ति पर पहरे हैं, मुद्राराक्षस का रंगमंच हमें याद दिलाता है कि कला की असली ताकत उसकी असहमति में है। ‘आला अफ़सर’ आज भी किसी भी सिस्टम का आईना है, ‘बदबख़्त बादशाह’ आज भी सत्ता की तन्हाई की कहानी।
मुद्राराक्षस अब कोई व्यक्ति नहीं, एक दृष्टि, एक चेतना और एक ज़रूरत हैं। उनकी रचनाएँ बताती हैं कि रंगमंच तब जीवित होता है जब वह सवाल करता है। वे हमें सिखाते हैं कि मंच पर खड़ा अभिनेता सिर्फ़ पात्र नहीं, लोक की आवाज़ होता है। “शब्द जब मंच पर उतरते हैं, तो वे केवल संवाद नहीं, विद्रोह बन जाते हैं।”
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