बुधवार, 5 नवंबर 2025

डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल : हिन्दी नाट्य-साहित्य के नवोन्मेषी शिल्पी

डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल : हिन्दी नाट्य-साहित्य के नवोन्मेषी शिल्पी

— लेखन : [मनोज कुमार मिश्रा]

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल हिन्दी नाट्य-जगत के उन विरल सृजनकारों में हैं जिन्होंने रंगमंच, आलोचना और कथा-साहित्य — तीनों को एक साथ नई दिशा दी। वे केवल लेखक नहीं, बल्कि विचारक, रंगकर्मी और शिक्षक भी थे। उनके नाटकों में भारतीय समाज की धड़कन, व्यक्ति-मन की जटिलता और युग-परिवर्तन की बेचैनी एक साथ दिखाई देती है।

जीवन और शिक्षा

डा॰ लाल का जन्म 4 मार्च 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के जलालपुर गाँव में हुआ। ग्रामीण जीवन ने उनके भीतर लोक-संवेदना और वास्तविकता के प्रति गहरी दृष्टि विकसित की। उन्होंने हिन्दी साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त की और “हिन्दी कहानियों के शिल्प-विधि का विकास” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित की। उनका अकादमिक जीवन अध्यापन और शोध दोनों में सक्रिय रहा। वे अनेक विश्वविद्यालयों और सांस्कृतिक संस्थानों से जुड़े रहे, जहाँ उन्होंने नाट्य-शिक्षा और रंग-साहित्य को व्यावहारिक रूप से बढ़ावा दिया।

रचनात्मक यात्रा

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल की साहित्यिक यात्रा अत्यंत व्यापक रही। उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी और आलोचना — सभी विधाओं में लेखन किया, किंतु उनकी ख्याति सर्वाधिक एक नाटककार के रूप में हुई। उनके लेखन में सामाजिक यथार्थ, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और प्रतीकात्मकता का अद्भुत संयोजन मिलता है।

उनका पहला उल्लेखनीय नाटक ‘अँधा कुआँ’ (1956) हिन्दी नाट्य-जगत में एक नई धारा लेकर आया। इसके बाद ‘मादा कैक्टस’ (1959), ‘मिस्टर अभिमन्यु’ (1971) और ‘दूसरा दरवाज़ा’ (1972) जैसे नाटकों ने उनके रचनात्मक कौशल की पहचान बनाई। इन नाटकों में समाज के भीतर फैले अन्याय, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की संघर्षशीलता और आत्म-संघर्ष की गहरी पड़ताल की गई है।

विषय और दृष्टि

डा॰ लाल के नाटक मानव-जीवन की गहराइयों में उतरते हैं। उनके पात्र अपने परिवेश से जूझते हुए अस्मिता की खोज में निकलते हैं। वे सत्ता-संरचना, नैतिक पतन, स्त्री-स्वातंत्र्य और वर्गीय असमानता जैसे विषयों को मंच पर लाने का साहस करते हैं। उनका नाट्य-दर्शन इस विचार पर आधारित है कि रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज के आत्म-मंथन का माध्यम है।

उनकी रचनाओं में ‘नेपथ्य’ का उपयोग अत्यंत प्रतीकात्मक रूप में होता है। नेपथ्य उनके लिए केवल पर्दे के पीछे का हिस्सा नहीं, बल्कि मनुष्य के अवचेतन का वह क्षेत्र है जहाँ अनकहे भाव और अदृश्य घटनाएँ आकार लेती हैं। उनके नाटकों का स्वप्न-संरचना-प्रधान शिल्प उन्हें आधुनिक और मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से विशेष बनाता है।

कथा और उपन्यास

नाटकों के अतिरिक्त डा॰ लाल ने कथा-साहित्य में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनका उपन्यास ‘धरती की आँखें’ (1951) ग्रामीण जीवन और सामाजिक संघर्ष का सजीव दस्तावेज़ है। ‘बया का घोंसला’ में उन्होंने स्त्री-जीवन की कोमलता और संघर्ष को करुण संवेदना से चित्रित किया। उनकी कहानियाँ आम आदमी की जिजीविषा और नैतिक द्वंद्व को अभिव्यक्त करती हैं। वे पात्रों के भीतर चलने वाले विचार-संघर्ष को इतनी बारीकी से पकड़ते हैं कि पाठक स्वयं उस अनुभव का सहभागी बन जाता है।

भाषा और शिल्प

डा॰ लाल की भाषा सहज, स्वाभाविक और संवाद-प्रधान है। वे लोक-शब्दों, मिथकीय प्रतीकों और आधुनिक संवेदनाओं का ऐसा संतुलन रचते हैं कि नाटक केवल कथानक नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव बन जाते हैं। ‘मिस्टर अभिमन्यु’ में उन्होंने महाभारत के मिथक को आधुनिक मनुष्य के संघर्ष से जोड़कर एक नवीन प्रतीक-रचना प्रस्तुत की। उनके संवादों में लय, ताजगी और विचार की तीक्ष्णता साथ-साथ चलती है।

नाट्य-चिन्तन और आलोचना

डा॰ लाल ने केवल सृजन ही नहीं किया, बल्कि नाट्य-साहित्य पर गंभीर विचार भी किए। उनकी समीक्षात्मक कृतियाँ — ‘पारसी हिन्दी रंगमंच’, ‘रंगमंच और उसकी भूमिका’ तथा ‘हिन्दी कहानियों के शिल्प-विधि का विकास’ — हिन्दी नाट्य-विचार के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती हैं। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य-परंपराओं के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से यह दिखाया कि हिन्दी रंगमंच अपने लोक-तत्वों और आधुनिक संवेदनाओं से नई दिशा पा सकता है।

समाज और मानवीय दृष्टिकोण

डा॰ लाल का साहित्य समाज की गहराइयों को छूता है। वे मनुष्य के संघर्ष को किसी एक वर्ग या काल से नहीं बाँधते, बल्कि उसे सार्वभौमिक अनुभव के रूप में देखते हैं। उनके पात्र किसान, मजदूर, स्त्री या शिक्षक — सभी अपने समय की चुनौतियों से मुठभेड़ करते हुए आत्म-पहचान की खोज में लगे रहते हैं। उन्होंने दिखाया कि समाज में परिवर्तन केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक भी होना चाहिए। यही दृष्टि उन्हें यथार्थवादी लेखकों से अलग बनाती है।

रंगमंच से जुड़ाव

डा॰ लाल का जीवन रंगमंच से गहराई से जुड़ा रहा। वे स्वयं नाट्य-निर्देशन करते थे और नए कलाकारों को प्रशिक्षित करते थे। उनके नाटक ‘दूसरा दरवाज़ा’ को दिल्ली के रंग-समूहों ने अनेक बार मंचित किया। उनकी लेखनी में रंग-अनुभव की गंध है — यह विशेषता केवल उस लेखक में संभव है जिसने मंच की धड़कन को बहुत पास से महसूस किया हो।

व्यक्तित्व और मूल्य

डा॰ लाल विनम्र, गंभीर और चिंतनशील व्यक्ति थे। वे संवाद में संयमित किंतु विचारों में अत्यंत मौलिक थे। साहित्य उनके लिए केवल पेशा नहीं, जीवन-धर्म था। वे विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा-स्रोत और सहकर्मियों के लिए सृजनशील साथी थे। उनके जीवन में अध्ययन, अध्यापन और सृजन — तीनों का सुंदर संगम दिखाई देता है।

पुरस्कार और मान्यता

उनकी रचनात्मकता और नाट्य-सेवा को देखते हुए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए। उनके नाटक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल किए गए और आज भी रंगकर्मियों द्वारा मंचित किए जाते हैं।

विरासत और प्रासंगिकता

20 नवम्बर 1987 को दिल्ली में उनके निधन के साथ हिन्दी नाट्य-साहित्य का एक उज्ज्वल अध्याय समाप्त हुआ, परन्तु उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं। समाज, व्यक्ति और मूल्य-संघर्ष के प्रश्न आज भी वही हैं जिन्हें उन्होंने अपने नाटकों में उठाया था।

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल की विरासत केवल उनकी रचनाओं में नहीं, बल्कि उनके दृष्टिकोण में है — वह दृष्टि जो रंगमंच को जीवन का दर्पण मानती है। वे हमें सिखाते हैं कि साहित्य तभी सार्थक है जब वह मनुष्य के भीतर छिपे नेपथ्य को उजागर कर सके। उनके नाटक आज भी हिन्दी रंगमंच को दिशा देते हैं और आने वाली पीढ़ियों को सृजन के प्रति सजग बनाते हैं।

(लेखक हिन्दी नाट्य-साहित्य और भारतीय रंगमंच के अध्येता हैं।)

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