एक दूसरे के पूरक हैं “पण्डित उगम राज और कुचामणी ख्याल”
राजस्थान की मिट्टी अपने भीतर ऐसी लोक-सांस्कृतिक चेतना संजोए हुए है, जिसमें संगीत, नृत्य, नाट्य और अध्यात्म का अद्भुत संगम दिखाई देता है। इसी भूमि ने अनेक लोक कलाकारों को जन्म दिया जिन्होंने परंपरा और रचनाशीलता के सेतु बनकर समाज को कला के माध्यम से एक नई दृष्टि दी। इन्हीं में एक विशिष्ट नाम है — पण्डित उगम राज, जिनका जीवन और सृजन “कुचामणी ख्याल” के संरक्षण और संवर्धन के लिए समर्पित रहा।
कुचामणी ख्याल की उत्पत्ति और स्वरूप
कुचामण (जिला नागौर, राजस्थान) से उत्पन्न यह लोक-नाट्य परंपरा लगभग तीन सौ वर्षों से अधिक पुरानी मानी जाती है। यह एक संगीतात्मक नाटक शैली है जिसमें गान, वादन, अभिनय और संवाद की समान भागीदारी होती है। इसका आधार लोकभाषा, लोकसंगीत और लोककथाओं से निर्मित है।
इस नाट्य शैली में पुरुष कलाकार ही स्त्री भूमिकाएँ निभाते हैं, और प्रस्तुतियों में सामाजिक, धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं को व्यंग्य, हास्य और भावनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से जनसामान्य के समक्ष लाया जाता है।
यह शैली एक प्रकार से राजस्थान का “लोक-ऑपेरा” कही जा सकती है, जिसमें ढोल, नगाड़ा, हारमोनियम, शहनाई और तबले की ध्वनियाँ रंगमंचीय वातावरण रचती हैं।
पण्डित उगम राज का जीवन और कलायात्रा
पण्डित उगम राज (1926–2007) का जन्म नागौर जिले के कुचामण क्षेत्र में हुआ। बचपन से ही उनके भीतर संगीत और नाटक के प्रति विशेष अनुराग था। स्थानीय मेलों और जगरों में प्रदर्शन देखने के बाद उन्होंने “ख्याल” की विधा को जीवन का ध्येय बना लिया।
उनकी साधना केवल अभिनय तक सीमित नहीं रही; उन्होंने ख्याल की संगीत रचना, संवाद-लेखन, निर्देशन और प्रशिक्षण सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया। वे “उगम राज खिलाड़ी” के नाम से प्रसिद्ध हुए — यहाँ ‘खिलाड़ी’ शब्द का अर्थ मात्र कलाकार नहीं बल्कि उस लोक-रचनाकार से है जो मंच पर जीवन का सम्पूर्ण अभिनय कर सके।
पण्डित जी ने कुचामणी ख्याल के अनेक नाटकों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाईं — “गोपीचंद-भर्तृहरि”, “प्रह्लाद चरित”, “राणा प्रताप”, “धोला-मारू” जैसे नाट्य प्रकरण उनके प्रस्तुतियों के केंद्र में रहे। वे न केवल अभिनय के शिल्पी थे, बल्कि संवाद की लयात्मकता और गायन की भावाभिव्यक्ति को मिलाने की कला में भी निपुण थे।
ख्याल के संगीत का पुनरुद्धार
कुचामणी ख्याल के संगीत पक्ष को उगम राज ने नया जीवन दिया। उन्होंने लोक रागों — विशेषकर मांड, सोरठ, देश और बिलावल — का प्रयोग नाट्य गीतों में किया, जिससे यह शैली और भी आकर्षक बनी।
उनकी प्रस्तुतियों में न केवल मनोरंजन था, बल्कि एक गहरी संवेदनशीलता भी थी। संवादों के बीच गीतों की प्रविष्टि इस तरह होती थी कि दर्शक कथा के भाव-जगत से बाहर न जाए। यही उनकी अभिनय-कला की मौलिकता थी।
लोक और समाज के बीच सेतु
पण्डित उगम राज ने कला को लोक-जीवन से जोड़ा। वे मानते थे कि नाट्य का उद्देश्य केवल रंगमंचीय प्रदर्शन नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद है। उनकी प्रस्तुतियों में समकालीन समस्याएँ – जैसे स्त्री-सम्मान, लोभ, अन्याय, धर्म की विकृति और समाज की नैतिकता – को लोकभाषा की सहज शैली में प्रस्तुत किया जाता था।
उनके नाटकों में दर्शक केवल दर्शक नहीं, बल्कि सहभागी बन जाता था। यही कारण था कि गाँवों और कस्बों में जब “उगम राज की टोली” का प्रदर्शन होता, तो पूरा समाज उसमें सम्मिलित हो जाता।
प्रशिक्षण और संरक्षण कार्य
जीवन के उत्तरार्ध में पण्डित उगम राज ने “उगम राज खिलाड़ी लोक कला प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान” की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था लोक कलाकारों को प्रशिक्षण देना और इस dying art form को पुनर्जीवित करना।
उन्होंने युवा पीढ़ी को न केवल अभिनय सिखाया, बल्कि लोकसंगीत और पारंपरिक संवादों की संवेदनशीलता भी समझाई। इस संस्था के माध्यम से अनेक कलाकार आगे आए जिन्होंने बाद में दूरदर्शन, आकाशवाणी और सांस्कृतिक मंचों पर कुचामणी ख्याल का नाम पुनर्जीवित किया।
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मान्यता
पण्डित जी को उनके योगदान के लिए विभिन्न सांस्कृतिक संस्थानों ने सम्मानित किया। राजस्थान साहित्य अकादमी, लोक कला मंडल, तथा संगीत नाटक अकादमी जैसे संस्थानों ने समय-समय पर उनकी प्रस्तुतियों को प्रोत्साहन दिया।
उनकी टोली ने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, दिल्ली और मुंबई तक में प्रदर्शन किए। वे इस परंपरा को केवल ग्रामीण संस्कृति तक सीमित न रखकर राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने वाले पहले कलाकारों में गिने जाते हैं।
कला की विशेषताएँ और अभिनय-दर्शन
उगम राज के अभिनय में एक गूढ़ मनोवैज्ञानिक संवेदना दिखाई देती थी। उनके अनुसार, “ख्याल” केवल नाट्य नहीं, जीवन का विस्तार है। वे संवादों में नाटकीयता नहीं, बल्कि अनुभूति की गहराई लाने पर बल देते थे।
उनके अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता थी – आवाज़ का प्रयोग और अभिव्यक्ति का संतुलन। वे पात्र की मनःस्थिति को आवाज़ की लय, गति और ठहराव से जीवंत कर देते थे।
उनकी मंचीय उपस्थिति में लोकभाषा का सौंदर्य, भावों की सरलता और हास्य का सूक्ष्म प्रयोग सम्मिलित रहता था।
परंपरा का उत्तराधिकार
पण्डित उगम राज के शिष्यों ने उनके मार्गदर्शन में इस कला को आगे बढ़ाया। उनके कुछ प्रमुख शिष्य आज भी राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के सांस्कृतिक मंचों पर कुचामणी ख्याल की प्रस्तुतियाँ करते हैं।
उनकी कला से प्रभावित नई पीढ़ी अब पारंपरिक विषयों के साथ-साथ आधुनिक सामाजिक विषयों पर भी ख्याल प्रस्तुत कर रही है। इस प्रकार पण्डित उगम राज का कार्य एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले चुका है।
अंतिम चरण और विरासत
2007 में पण्डित उगम राज का निधन हुआ, पर उनकी कला अब भी जीवित है। उनके रिकॉर्ड किए गए गीत, संवाद और नाटक आज लोककला के इतिहास का अमूल्य दस्तावेज हैं।
उनकी विरासत यह सिखाती है कि लोककला केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामूहिक स्मृति का संवाहक है। उन्होंने दिखाया कि परंपरा आधुनिकता की विरोधी नहीं, बल्कि उसकी जड़ है।
पण्डित उगम राज का जीवन हमें यह सिखाता है कि यदि कलाकार अपनी जड़ों से जुड़ा रहे, तो उसकी कला कभी मर नहीं सकती। उन्होंने जिस कुचामणी ख्याल को समाज की धड़कनों में पुनः जीवित किया, वह आज भी राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग है।
उनकी साधना, समर्पण और सृजनशीलता यह प्रमाणित करती है कि लोक-नाट्य केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि जीवित संस्कृति का दर्पण है। पण्डित उगम राज जैसे कलाकार ही वह सेतु हैं जो लोक और शास्त्र, परंपरा और आधुनिकता, और दर्शक तथा कलाकार के बीच संवेदनाओं का प्रवाह बनाए रखते हैं।
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