सोमवार, 30 जनवरी 2017

हलाल

अड़ियल थे जडियल भी
औ गलियां रोज बनाते थे
हमीं को कर दिया हलाल
आखिर क़ाबिल जो थे।

आप थे हम भी थे
समय भी वही था
यहाँ वहां जहाँ जो भी
था सिर्फ गवाह वो

शनिवार, 28 जनवरी 2017

बिस्तर


अन्त में आओगें मेरे ही आगोश में हर दिन|
यार चाहे जितने भी हो जाये तुम्हारे||

(मनोज कुमार मिश्रा)

बुधवार, 18 जनवरी 2017

हरा सोना

हरा सोना

मध्यप्रदेश भौगोलिक रूप से जंगल, पहाड़ और छोटी पहाडिंयों से घिरा और बसा है इस कारण से यहाँ जनजातियों का निवास स्थान है सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से हमारा प्रदेश समृद्ध है| यहाँ निवास करने वाली जनजातियाँ ही अपने उपयोग के लिए प्राकृतिक रूप से बांस का इस्तेमाल करतीं है|
मध्यप्रदेश प्रमुख रूप से चार अंचलों की परंपरा से बना है निमाड़, मालवा, बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड| एक प्रसिद्ध कहावत है कि चार कोस में पानी और चालीस में बानी बदल जाती है तो इन जगहों में बोलाचाल में हिंदी तो काम आती है पर देशज बोली ज्यादा स्थान घेरती है| जैसे निमाड़ में निमाड़ी, मालवा में मलावी, बुंदेलखंड में बुन्देली, चम्बल में भदावरी, तंवरघारी एवं ब्रज मिश्रित बुन्देली और बघेलखण्ड में बघेली बोली जाती है|
बांस कभी खपरैल घर की छप्पर बनता है तो कभी तम्बू का खूंटा बन जाता है कभी बाँसुरी बन लोगों को सम्मोहित करता है| बाँस कभी सूप, डलिया, डंडा, पंखा बन जाता है| बांस की खासियत भी बहुत अजीब है यह तो बिना खाद के ही बढ़ता चला जाता है यह दुनिया में पाए जाने वाले वृक्षों में सबसे लचीला माना जाता है साथ ही एटमी विष्फोट भी बांस को रोक नहीं सकते है| हिरोशिमा नागासाकी में जब परमाणु हमला हुआ तो वहां पर सब नष्ट हो गया पेड़-पौधे,खेती, बिल्डिंग और जनहानि भी बहुत हुई| परमाणु विस्फोट से वर्तमान समय में भी नवजात विकृत पैदा हो रहे है| स्थान पर पुनः सृष्टि सृजन जब ईश्वर द्वारा शुरू हुआ तो बांस ही वह पहला पौधा जो वहाँ उत्पन हुआ| और फिर से वहां के लोगों में जीवन के प्रति आशा का संचार शुरू कर दिया| बांस को जहाँ लगा दो  वहां की मिट्टी के अनुकूल अपने को ढाल लेता है| और बांस अपने गोंठ में किसी भी दूसरे गोंठ के पेड़ पौधों को घुसने का रास्ता नहीं देता है| यह बांस का गोंठ जहाँ भी होगा पूर्णरूपेंण होगा| इससे बाँस के संगठन में रहने और संगठन से उत्पन्न ताकत का अहसास करवाता है बाढ़ को रोकने के लिए नदियो के किनारे बांस लगाए जाते है यह रेशम बांस कहलाता है लचीला होता है| नदी के पानी के रुख को मोड़ता है साथ ही बाढ़ की गति को अवरुद्ध कर देता है| इसमें मुख्य रूप से तो बांस का तना काम करता है किन्तु अपरोक्ष रूप से प्रमुख काम बांस की जड़ का होता है जो कि बाँस को मिटटी से उखड़ने नहीं देती, इसके जड़ों का ताना-बाना आपस में गूंथा रहता है| बाँस की देखभाल बहुत कम करनी पड़ती है| बड़े बुजुर्ग कहते है कि इसे कुंवारे लडके लड़किओं को नहीं लगाना चाहिए नहीं तो वो आजीवन बाँझ रह जाएँगे| जिन बाँसों के तने पूर्णरूपेण विकसित नहीं होते है वो कलाकृति का रूप ले लेते है जैसे गणेश, शेषनाग, शिवलिंग आदि प्रमुख है|
बाँस एक सामूहिक शब्द है बाँस का तना, लम्बा, पर्वसन्धि युक्त, प्रायः खोखला एवं शाखान्वित होता है। तने को निचले गांठों से अपस्थानिक जड़े निकलती है। तने पर स्पष्ट पर्व एवं पर्वसन्धियाँ रहती हैं। पर्वसन्धियाँ ठोस एवं खोखली होती हैं। इस प्रकार के तने को सन्धि-स्तम्भ कहते हैं। इसकी जड़े अस्थानिक एवं रेशेदार होती है। इसकी पत्तियां सरल होती हैं, इनके शीर्ष भाग भाले के समान नुकीले होते हैं। पत्तियाँ वृन्त युक्त होती हैं तथा इनमें सामानान्तर विन्यास होता है। बाँस का पौधा अपने जीवन में एक बार ही फल धारण करता है। फूल सफ़ेद आता है। बाँस का आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इससे घर तो बनाए ही जाते हैं, यह भोजन का भी स्रोत है।
वनवासी बाँस को "हरा सोना' कहते हैं| बांस का पूरा जीवन परोपकार से भरा है जीवनदायक तो है ही साथ ही आजीविका का प्रमुख साधन है बांस के तने से तरह तरह की वस्तुएं, सजावटी  सामान, आभूषण, और खान पान का सामान बनता है| बांस एक बार जहाँ लग जाता है वहां स्थापित हो जाता है| बाँस पीले और हरे रंग में प्रमुख रूप से पाया जाता है|  भारतीय संस्कृति में बांस का विशेष महत्त्व है पर्व त्यौहार, रीति रिवाज़ में बांस का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में अवश्य होता है साथ ही लोक शिल्पों के विकास में बांस का अतुलनीय योगदान है फिर भी  बांस शिल्प,और उसकी तकनीक आज तेज़ी से गुम हो रही है| स्मरण और अनुकरण के सहारे जिंदा रहने वाली सदियों पुरानी बांस की कताई-कढ़ाई दस्तावेजीकरण के आभाव में अब लुप्तप्राय हो चली है  बाँस की कोपलें लोगों की पसंदीदा सब्जी है|
श्रीमदभागवतपुराण कथा के प्रसंग में गोकर्ण का भाई धुंधकारी प्रेत है| उसने सात गांठों के बांस में प्रवेश करके भागवत कथा श्रमण किया था जिसके प्रभाव से धुंधकारी को प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है भागवत कथा सप्ताह में एक बांस विधि विधान से लाल पताका के साथ प्रतिष्ठित किया जाता है| साथ ही यहाँ यह भी उल्लेख आवश्यक है कि सनातन धर्म में यज्ञ की पूर्णाहूति से पहले एक बाँस लाल पताका के साथ प्रतिष्ठित किया जायेगा, जिसमें श्री हनुमान का वास होगा| अमूमन यह भी देखा गया है कि मांगलिक कार्य बांस के बिना पूर्ण नहीं हो पाता है किसी न किसी रूप में, आकार में, रंग में बांस विद्यमान होता है|
पुरातनकाल से ही बैगा बांस की पूजा करते है बैगा जनजाति में बांस लिंग के रूप में भी पूजा की जाती  है बांस के तने के अन्दर ही बंसलोचन पाया जाता है यह पथरीली सफ़ेद या फिर हल्के नीले रंग कि होती है इसे तबाशीर के नाम से भी पुकारा जाता है| च्यवनप्राश बनाने के लिए बंसलोचन बहुत जरूरी तत्व है| इसके सेवन से पौरुष में वृद्धि होती है| यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। भारतवासी प्राचीन काल से दवा की तरह इसका उपयोग करते आ रहे हैं। यह ठंडा तथा बलवर्धक होता है। वायुदोष तथा दिल एवं फेफड़े की तरह-तरह की बीमारियों में औषधि के रूप में बंसलोचन का प्रयोग होता है। बुखार में इससे प्यास दूर होती है। बाँस की नई शाखाओं में रस एकत्रित होने पर वंशलोचन बनता है और तब इससे सुगंध निकलती है। वंशलोचन से एक चूर्ण भी बनता है, जो मंदाग्नि के लिए विशेष उपयोगी है।
डिंडोरी के बैगा बच्चे को जन्म देने के तीन दिन बाद माँ को ‘पीका’ खिलते है इसे ‘कान्दा’ भी कहते है यह पीका बांस के निकलने पर सबसे पहले उसे काट लेते है और उसे छीलते है यही पीका है| इसे कंडे कि आग पर भून कर जचकी के बाद खिलते है यह पुष्टिवर्धक होता है|
जब जचकी होती थी तो बांस की फंटी से चाकू बनाया जाता था यह बहुत शुभ माना जाता है|  जचकी होने के बाद बच्चे को बांस के सूप में लिटाया जाता है लोग इसे देवी लक्ष्मी की गोद मानते है| और जब बच्चा थोडा बड़ा हो जाता है तो उसे टोकनी में लिटाते है| किन्तु बांस तो मनुष्य के हाँथ में किसी न किसी रूप में रहता है बांस का सबसे ज्यादा प्रयोग डंडे के रूप में होता है| बांस के छोटे टुकडे को जब शिक्षक हाँथ में लेता है तो वह विद्यावर्दनी बन जाती है | तो वहीं कलम बनाने के लिए बाँस का प्रयोग होता था बाँस का उपयोग अब कुरइली, अरई, पांचा, घोटा, घिनौची, बांसा, खूँटी, फंटी, साँटी, सोटी, अलगनी, बांसुरी, मुरली, बंसी, अलगोजा, कुर्सी, सोफे, मोढ़ा, विंड चाइम आदि घरों में उपयोग आने वाली वस्तुएं तो है साथ ही खेलों में चौपड़, चंदा-पचीसी, गिल्ली डंडा, गढ़ा गेंद, पाई डंडा, सुकबल डंडा आदि प्रमुख है| बाँस के बिना हम दिवारी, अहिराई लाठी, करमा, सैला, गेड़ी, बधाई आदि लोक नृत्यों की कल्पना करना भी असंभव है| बांस ही हथियारों में सबसे जरूरी होता है चाहे वह धनुष बाण, भाला, बरछी, डंडा या खटका जो भी हो| वहीं दैनिक उपयोग से स्वर्ग तक का सफर बांस की बनी सीढ़ी पर ही करना पड़ता है| यह सीढी लगातार आगे बढ़ने को भी प्रोत्साहित करती है|
भारतीय किसान का तो ‘बिन बांस सब सून’ जैसा हो जाएगा, जब फसल बड़ी हो जाती है और उसमें जानवरों और पक्षियों का आतंक छा जाता है तब किसान छाहुर बांधता है| इसका ही एक नाम कागभगोड़ा है खेतिहर किसानों का मानना है कि हरे बांस पर छाहुर बांधेंगे तो इसे देखकर हमारी फसल को बीमारी, महामारी, जानवरों और पशुपक्षियों के आतंक से मुक्ति मिल जाएगी| सिचाई के लिए पहले पाइप के स्थान पर बांस के तनों का उपयोग किया जाता था|
बांस के तनों को अन्दर से साफ करके उसमें साफ पानी भरकर रखा जाता है इसे पीपा कहा जाता है| ताकि वह ठंडा हो सके| पीने में पीपा का पानी बहुत ही सोंधा होता है| साथ ही सुपाच्य होता है|
बांस के तने की मजबूती उसमें एकत्रित सिलिका तथा उसकी मोटाई पर निर्भर है। पानी में बहुत दिनों तक बाँस खराब नहीं होते किन्तु कीड़ों के कारण नष्ट होने की संभावना बनी रहती है।
कृष्ण ने बांसनि बांस से बनी मुरली से सुरीली धुन बजाकर सबको मोहित कर लिया था अब तो मुरली के साथ साथ बंसी, बांसुरी, अलगोजा आदि सुषिर वाद्ययंत्र बनाते है यह वाद्ययंत्र मनुष्यों, जानवरों और पशुपक्षियो को सामान रूपसे मोहित कर लेता है| उत्तर भारतीय लोक संगीत बांसुरी या अलगोजे के बिना संभव नहीं है|
फेंगशुई (ज्योतिष का प्रकार) में बाँस का बहुत अधिक महत्व है। इसे घरों के लिये सौभाग्य सूचक माना गया है। ऐसी अवधारणा है कि यह परिवार में ज्ञान और उससे उत्पन्न शांति लेकर आता है। यह हमें सिखाता है कि हमें बाँस की तरह विनम्र, लचीला, और साफ अंतःकरण वाला होना चाहिये ताकि कुंडलिनी का संचरण मुक्त भाव से हो सके और हमारी आत्मा शुद्ध रहे। अगर बगीचे में बाँस के पेड़ हों तो इसकी पत्तियों से गुजरती हुई हवा बहुत शुभ ध्वनियों का प्रभाव उत्पन्न करती है। अगर बाँस को उगाया न जा सके तो एक छोटा सा बाँस का पौधा लाकर कमरे में रखना चाहिये और इसकी देखभाल करनी चाहिये। इसकी देखभाल आसान है क्योंकि यह थोड़े से पानी से ही अपना भोजन ग्रहण कर लेता है। हर फूल की दुकान में मिलने वाले बाँस के छोटे गमले में फेंगशुई के तत्व  लकड़ी, पृथ्वी, जल, अग्नी और धातु रूप में समाए होते हैं। बाँस का पौधा स्वयं लकड़ी तत्व है, कुछ पत्थर जो बाँस के पौधे वाले पानी में पड़े होते हैं वे पृथ्वी तत्व हैं। जिस पानी में इसे रखा जाता है वह जल तत्व है, जिस लाल रिबन से सौभाग्य के प्रतीक बाँसों को बाँधा जाता है वह अग्नितत्व का प्रतीक है और काँच का बर्तन जिसमें इसे रखा जाता है| वह धातु तत्व का प्रतीक है|
बांस से बनी वस्तुओं को संरक्षित करने के लिए उसे गोबर और मिटटी से लीपा जाता है बघेलखंड में मिटटी से लीपने के बाद छुही से भी लीपते है| बांस को दीमक और घुन से बचाने के लिए इस पर वार्निश किया जाने लगा है इससे बांस से निर्मित वस्तुओं में चमक बनी रहती है|
मध्यप्रदेश में बांस सम्बन्धी उत्पत्ति कथाएँ

गौरा का गुस्सा
महादेव एक बार माता पार्वती के साथ पृथ्वी भ्रमण में निकले थे| एक सुन्दर स्थान को देख पार्वती ने वह कुछ क्षण ठहरने का आग्रह महादेव से किया| महादेव और पार्वती एक सुन्दर सी चट्टान पर विराजमान हुए| वहां पर पत्थर के कोटर से एक नेवला महादेव के गले के आभूषण सांप को लगातार घूर रहा था| सांप ने  नेवले की हरकत को भाप लिया| अपना गुस्सा फुफकार कर प्रदर्शित कर रहा था| जिस कारण महादेव और पार्वती के समक्ष हो रही बातचीत में खलल पड रही थी| महादेव गुस्से में आकर सांप को धरती पर नेवले के पास पटक दिया| और उसी समय सांप ने बांस का रूप ले लिया| पार्वती ग्लानि से भर गयी कि यह सब मेरे कारण हुआ है| तो महादेव ने पार्वती को समझते हुए कहा कि यह तो होनी है इसे तो होना ही था इसकी जिम्मेदारी तुम अपने माथे क्यों लेती हो| मै इस पेड़ की जड़ में बशेश्वर महादेव के रूप में रहूँगा| यह सब वहां पर रहने वाले कबीले के लोंगों ने देखा| तो महादेव के पास जाकर उनसे विनय किया कि इस वृक्ष का नाम क्या होगा भगवान| महादेव ने पेंड़ का नाम बांस रखा| तो पार्वती ने उस वृक्ष के उपयोग के बारे में पूंछा तो महादेव ने सबको बताया कि इस वृक्ष अग्नि को उत्पन्न किया जा सकता है, इसके अन्दर वंशलोचन नमक पदार्थ पाया जायेगा| इसी से बांस की उत्पत्ति हुई| बघेलखण्ड की तमाम जनजतियों में बांस का महत्व है|
हमार शस्त्र बड़ा की तुम्हार
एक बार बसोर जाति के लोग भगवान शंकर के पास पहुंचे और कहा हमारे पास जो बांस है वह छोटे छोटे है इनसे हम जो सामान बनाते है वह छोटा बनता और लोगों को अब अन्न रखने के लिए ज्यादा बड़े बर्तन (पोहरी) चाहिए इसलिए हमें बांस का तना भी बड़ा चाहिए| छोटे बांसों से पोहरी में जोड़ आ जाता है| भगवान शंकर ने उन्हें एवमस्तु कहा| इसी एवमस्तु के प्रभाव से दो देवताओं में विवाद खड़ा हो गया कि हमारा शस्त्र (हथियार) तुम्हारे शस्त्र से ज्यादा बड़ा है इतना कहकर दोनों देव ने कहा दिखाओ तो पहले देव ने अपनी दिव्य शक्ति से एक खूँटी बनाई| दूसरे देव ने भी अपनी शक्ति से एक खूँटी बना दी| और फिर नए प्रयोग करना शुरू कर दिया| दोनों ने खूँटियो को ज़मीन में गडा दिया| और दोनों ही देवों ने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रयोग अपनी-अपनी खूंटियों पर शुरू कर दिया| शक्ति के प्रयोग से खूँटी एक बित्ताभर बढती थी| यही बहुत देर तक चलता रहा हर बार खूंटी की लम्बाई बढती जाती है| शस्त्रों का जब नाप हुआ तो तोला माशा ऊँच नीच हो जाती थी| वह खूँटियाँ दैवीय प्रयोगों से स्वर्ग में इंद्र के सिंघासन को नीचे से ऊपर उठाने लगी| तब इंद्रा और स्वर्ग के सभासद भगवान शंकर के पास पहुंचे और विनय किया कि दोनों देवताओं का विवाद इतना बढ़ गया है कि हमारे सिंघासन को हिला दिया है| भगवान शंकर ने फिर बसोरों को बुलाया और पूंछा कितना बड़ा बांस चाहिए सौ फुट से एक सौ पचास फुट तक ठीक रहेगा उन लोगों ने आपसी सहमति से बताया| तब से बांस की इतनी लम्बाई है|
और इन्ही प्रयोगों से ही वह छोटी खूँटी कालांतर में बाँस का पेड़ बना और हर बार देवताओं के प्रयोग से बांस की गांठ (पोर) बने| यहीं से बांस का जन्म हुआ|
मध्यप्रदेश के वनवासियों में प्रचलित कथा
एक बार कि बात है सब देवता अपनी समस्या लेकर महादेव के दरवाजे पहुंचे| नंदी को अपने उपस्थित होने का कारण बताया त पश्चात् नंदी ने देवताओं को  पथ सुझाया और अपने संग देवताओं को ले महादेव के पास पहुंचे| महादेव ध्यान में लीन थे| माता पार्वती आसान में ही बैठी पंखा झल रहीं थी| त्रिलोकीनाथब महादेव ने देवताओं के आने का कारण समझ अपनी आंख खोली| सब देवताओं ने महादेव को प्रणाम किया| यथाउचित आशीष देकर महादेव ने देवताओं से उनके आने का कारण पूंछा| तो देवताओं के राजा इंद्र ने अपने स्थान से आगे बढ़कर महादेव के समक्ष देवताओं कि जिज्ञासा रखी| महादेव हम सब देव मृत्यु लोक के समस्त जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों और इंसानों के जीवनयापन खान-पान की व्यवस्था में लगे रहते है| और देवियों को तो देवलोक के साथ मृत्युलोक में वास कर रहे जीवों के प्रति अगाध प्रेम है| परन्तु उनके पास वस्तु विनिमय के लिए, उसके आदान प्रदान के लिए उचित माध्यम नहीं है| महादेव ने देवताओं कि समस्या को समझकर उन्होंने एक टोकनी विश्वकर्मा जी को प्रदान की जिससे वो वस्तुओं का आदान प्रदान कर सकें| अपने मुखार बिंदु से बोले, यह टोकनी बांस से बनी है, विश्वकर्मा जी आप अपनी कला और कल्पना को प्रयोग  कर अन्य वस्तुओं का निर्माण भी बांस से कर सकते है| इसका उपयोग देवलोक ही नहीं अपितु मृत्युलोक में भी लोग आसानी से कर सकेंगे| महादेव का आदेश प्राप्त कर देव  विश्वकर्मा ने बांस की कलाकृतियों का निर्माण शुरू कर दिया जिसमें प्रमुख रूप से सूप, टोकनी, झौआ, दौरी, चलनी,  चाकू, खोम्हरी, आदि का निर्माण दैनिक उपयोग के लिए किया| इस तरह से शिल्प कला का जन्म सर्वप्रथम बांस से ही माना जाता है| और मृत्युलोक में इस कार्य के लिए लोगों को, कलाकारों को प्रशिक्षित किया|
न्याय प्रिय बाँस
बात की सत्यता को परखने के लिए सूप को बांस की कमची (फंटी) या कैंची के ऊपर खड़ा किया जाता है और दो लोग एक एक कोने में पकड़ लेते है और सूप जिस तरफ घूम जाता है वह दोषी माना जाता है कहते है कि सूप कभी झूठ नहीं बोलता है| सूप हमेशा से न्यायप्रिय है|
श्रेष्ठ
एक बार की बात है दैनिक उपयोग में आनेवाले सब सामानों में बहस हो गई कि हम सबसे श्रेष्ठ है बहस के अंत में झाडू और सूप पर आकर सब रुक गये| बात फंस गई| झाड़ू और सूप में हांथापाई की स्थिति उत्पन्न हो गई| तब बाँस ने अपने कुल में लडाई होते देख बात सुलझाने की कोशिश की परन्तु बात सुलझाने की जगह और उलझती जा रही थी| तब बाँस की अंतिम सलाह मान दोनों झाड़ू और सूप भगवान के पास गए| और अपना पक्ष रखा| झाडू ने कहा मैं पूरे पृथ्वी की सफाई करती हूँ तो मैं सूप से ज्यादा श्रेष्ठ हूँ| और सूप ने कहा मै जीवन के लिए अतिआवश्यक अन्न को साफ़ कर उसे छांट देती हूँ अब आप बताइए, हम दोनों में श्रेष्ठ कौन है| तब भगवान ने दोनों का भेद खोला कि आप दोनों सगी बहनें है मृत्युलोक में दरिद्रता का स्वरुप झाड़ू है और लक्ष्मी का रूप सूप है| झाड़ू तुम स्थान को साफ कराती हो, किन्तु सूप अन्न को साफ़ करती है इसलिए  भगवान ने कहा कि सूप ही तुम सबमें ज्यादा श्रेष्ठ है|
जम टोटका (बुन्देली)
पुराने ज़माने में यमराज मनुष्य की आत्मा का हरण करने के लिए आते थे| एक बार की बात है कि एक बसोर के प्राण हरण करने पहुंचे| तो बसोर ने कहा हमने अजूबा चीज़ बनाई है आप आए हो तो हमारी कला तो देख लो| यमराज ने सोचा इसमें जरूर कोई शरारत है पर बसोर के अनुनय विनय के सामने यमराज की एक न चली और बसोर की  कला को देखने चले| बसोर अपने घर के अन्दर से बांस के बने कई दरवाजों के घर को दिखाया| और फिर अनुनय किया कि आप ही इसमें गृह प्रवेश करें| जैसे ही यमराज ने उस घर में प्रवेश किया वैसे ही बसोर ने दरवाज़ा बंद कर दिया यह खबर भगवान के पास पहुची, यमराज का पता किया गया| तो पता नहीं चला| तब भगवान स्वयं धरती पर आए और सब को महुए कि शराब पिलाते और उनसे यमराज के विषय में पूछते है बसोर भी शराब पीता है और यमराज के बारे में भगवान को बता देता है| कि यमराज मेरे घर में हैं| बस उसी दिन से यमराज अदृश्य होकर  आते है| और मनुष्य ने भी शराब पीना शुरू किया|
जीवन में संस्कार
भारत के प्रत्येक मनुष्य के जीवन में संस्कारों का बहुत महत्त्व है जन्म से आरम्भ हो मृत्यु के बाद तक हमारा पूरा जीवन संस्कारों से जुडा हुआ है| हमारे आचार्यों ने षोडश संस्कारों का पारंपरिक विधान दिया है| संस्कार मनुष्य की पहचान बनाते है| मनुष्य की सबसे बड़ी लालसा संतति सुख और मान, ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा और समृद्धि प्राप्त करना है| मनुष्य को कितना ही धन, वैभव, अधिकार, सम्मान और अन्यान्य चीजों का ऐश्वर्य क्यों न उपलब्ध हो पर अगर उसे लोकाचार की जानकारी नहीं  है तो समाज उससे अपने को अलग कर लेता है|
को है गुलज़ार औ केकर पात रसावन
रे सैंया मोसे रहव न जाय हो|
बंसबा गुलजार
कोइली के बोल रसावन
मोसे रहीयउ न जाय
- बघेली फाग दहका

मनुष्य के सोलह संस्कारों के साथ ही साथ तकरीबन प्रत्येक धार्मिक सामाजिक कार्य में बाँस बहुत महत्वपूर्ण है| या यह कहें कि बाँस के बिना भारतीय मनुष्य के संस्कार पूर्ण नहीं होंगे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी|

सरकस के दो तीर धनुइया नोरी बाँस की
छेड़ों वीरन रहे गेल बहिन हमरी कां चली जे|
तुम खों तो छोड़ें वीरन महल अटारी
हम खों बदे परदेस वीरन हम चले जे|
बाबुल के आँगन वीरान छूट गये है|
अब तो लिखे परदेस|
खिरका गीत ( बुन्देली )
गोद भराई
इस संस्कार में मायके पक्ष की स्त्रियाँ मुख्य रूप से गर्भवती स्त्री के आँचल में बताशे चावल इत्यादि बाँस के सूप में रखकर डालते है इस अवसर पर रिश्तेदारों और  आसपास के लोगों को बुलउआ दिया जाता है| इसमें नोकझोंक वाले संस्कार गीत गाये जाते है| सास, ननद, सखियों आदि को ताने उनके नखरे और हास्य व्यंग होता है| साथ ही गर्भवती के नौ महीने की स्थितियों का रूप चित्रण एवं गर्भस्थ शिशु के स्वस्थ और सुन्दर होने की कामना होती है|
जन्म के साथ ही पुत्री हुई तो लक्ष्मी स्वरुप मानकर सूप बजाकर शुभ सूचना दी जाती  है| और यदि पुत्र हुआ तो थाली बजाकर शुभ सूचना दी जाती है| नारा छीनने वाली सायानी महिला (दाई) आदिकाल से ही बांस की फंटी से बनी चाकू का उपयोग करती है| शिशु को पहली बार जब बरहौ के दिन लोगों को दिखाया जाता है तो बाँस के बने सूप या फिर प्रसूता स्त्री के मायके से आये झूले में दिखाया जाता है| प्रसूता स्त्री को जब कुआं पूजन के लिए लेकर जाया जाता है तब बांस की बनी टोकनी, सूप , छन्नी, छिटबा लगता है|
अन्नप्राशन, मुँह जूठा करना
अन्नप्राशन में बच्चे को सूप में लिटाकर उसे अन्न खिलाया जाता है जो बड़ा बुजर्ग बच्चे को अन्न खिलाएगा वह नवजात को गोद में उठाकर उसे बांस या आम की छोटी डंडियो से दातून करवाता है| इस रस्म को मुखजूठा करना भी कहते है|
मुंडन
शिशु के सिर से प्रथमबार बाल उतरने को मुंडन संस्कार कहते हैं| यह संस्कार एक से पाँच वर्ष के पूर्व किया जाता है| मुंडन संस्कार बुआ, दादी या माँ की गोद में संपन्न करवाया जाता है| इस संस्कार के बाद नाई और पंडित को सूप में सीधा (अनाज,हरी सब्जी और फल) दिया जाता है|

बांसनि की बसुरिया भोलेनाथ
अलगोजा बजामै लम्बी टेर भोलेनाथ
झुकति आमै बाबा जी के कमरें
जैसे हजारी गेंदा के फूल भोलेनाथ
जहाँ सीता सहित भगमान भोलेनाथ
जनकपुर नीक लागै भोलेनाथ
बांसनि की बसुरिया भोलेनाथ
- बघेली भोलागीत

कनछेदन (कर्णछेदन)
यह संस्कार तीन से सात वर्ष की आयु में होता है| लड़की की नाक का भी छेदन किया जाता है| इसमें सूप पर आटा रखकर गोबर से लीपे आँगन में घर की स्त्रियाँ चौक पूरती हैं और पिता या बाबा चौक पुराने वाली स्त्री को यथाउचित नेग देते हैं|

गलियन गलियन बाढ़े है बाँस
बहिनी बोलामैं कि चले आबा भइया हमारे देस
गलियन गलियन बाढ़े है बाँस कैसे आऊ मैं तोहरे देस
हम बांस कटउबै गलियन गलियन,
भईया चलेआबा वहय गलियन हमारे देस
बहिनी बोलामैं कि चले आबा भइया हमारे देस
करहिया पर की गारी

यज्ञोपवीत ( जनेऊ संस्कार या बरुआ )
ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गों में जनेऊ संस्कार किया जाता है| बाँस के बने मण्डप में यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है इसमें मध्यप्रदेश में दस बांस को जोड़े में ज़मीन पर निश्चित दूरी पर गाड़ा जाता है| ऊपर भी बांस से ही जाल बनाया जाता है यहाँ बांस की संख्या निश्चित नहीं है| फिर इसमें आम, जामुन, नीम की पतली टहनियों को रखते है| इस संस्कार में बांस के बने सूप, दउरी, छिटबा, छन्नी आदि सामान लगता है| पंडित विधि-विधान से यज्ञोपवीत संस्कार करते है, ब्राम्हणों में तो यह दूसरा जन्म भी माना जाता है|

हरे बाँस मण्डप छाये
रामलखन ब्याहन आये
जब सिया जू की होत लुगानियां
बरन बरन कागद आये
जब सिया जू की आई बराते
ऐरावत हाथी आए, रामलखन
जब सिया जू खों चढत चढ़ाये
रतन जड़े गहने आये
बघेली मडवा गीत

ये आठ कलाई नौ जने
चले ये ननदजन जांय, मंडवा छबायो एरी राम ने|
ब्याह रचायो भगमान ने
कान्हर उपजी ओ डान्डोली
कान्हर के डोला खम्भ, मंडबा छ्बायो एरी रामने|
ब्याह रचायो भगमान ने
खोहिन उपजी ओ डान्डोली
बाबरी के दोला खंभ मड़वा छबायो एरी राम
खाबरी के हरे बांस, एरी राम ने|
ब्याह रचायो भगमान ने|
कान्हर काटी ओ डाँडोली
कुल्हारनि काटी ओ डाँडोली
फरसनि से डोरा खंभ, मडबा छबाओ एरी राम ने
फरसनि हरे बाँस, मडबा छबाओ ऐरी राम ने|
ब्याह रचाओ भगमान ने
मडवा गीत( निमाड़, सहरिया जनजाति)

शुभ मुहूर्त में मण्डप आम के पत्तों से छाया जा रहा है|भगवान की कृपा से यह अवसर आया है| आज के दिन के लिए पवित्र वृक्षों कि डालियाँ उपजी हैं| आम-जामुन के पेड़ उपजे हैं| खोह में पैदा होने वाले वृक्षों के डंडों से मण्डप बनाया गया है| झील के किनारे के वृक्षों के खम्ब गाड़े गये है| हरे हरे बांस से मण्डप सजा है| कुल्हाड़ी, फरसे से डालियाँ और खम्भे शुभ मुहूर्त में काटे गये है|

काहेरि के डोरा खम्भ, मडबा छबायो एरी राम ने
ब्याह रचायो भगमान ने,
बकुलनी ढ़ोई ओ डाँडोली
बोरीन के डोरा खंभ, मडबा छबायो एरी राम ने
बोरिन के हरे बांस, मडबा छबायो एरी राम ने|
ब्याह रचायो भगमान ने
कान्हर उतरी ओ डाँडोली
कान्हर के डोरा खंभ
कान्हर के हो बांस, मडवा छ्बायो एरी राम ने
बरई में उतरी ओ डाँडोली
बसोआ बजे डोरा खम्भ
बसोआ बजे हरे बांस मंडबा छबायो एरी राम ने|
पलिंगा छबायो एरी राम ने
जडिदै रे बडई के डाँडोली
गढ़िदै रे बडई के डाँडोली
पतोलेदे बंसोदर बांस, मडबा छबायो एरी राम ने|
ब्याह रचायो भगमान|

जंगल से वकुल की रस्सी से डालियाँ, खम्भे बांधकर लाये गये हैं| बरई गाँव के आँगन में यह डाँडोली उअतरी है| आँगन में खसोआ बाजे बज रहे है| हे बढ़ई भाई! पवित्र डाँडोली का पलंग बना दे| हे बन्सफोड़ भाई | हरे हरे बांस मण्डप के लिए लाकर दे| मेरे यहाँ भगवान कि कृपा से विवाह का अवसर आया है|

चलो सखी देखन चलियो रे जहाँ माड़ो परत है|
कहना के रे थूनिहा, कहना के बांस
कौन छैल डरबैइया रे जहाँ त मडवा परत है|
ब्रिन्द्राबन के थून्हीं रे, मथुरा के है बांस
कृष्ण छैल डरबैय्या रे जहाँ त मडवा परत|
बघेली मड़बागीत

हरे हरे बांसों से मण्डप सजाना है|
बन्ना के बब्बा बोले कैसी दुल्हन चाहोगे
गोरी नहीं काली नहीं छैल छबीली नहीं
श्यामली सलोनी बन्नी मेरे मन भायोरे
हरे हरे बांसों से मण्डप सजाना है|
बुन्देली मडवागीत
विवाह
भारतीय लोक परंपरा में विवाह की भिन्न भिन्न परम्पराएँ है| विवाह परंपरानुसार  बिना बांस के तो संभव ही नहीं है| इसमें बांस तो आवश्यक है ही मण्डप के लिए साथ ही उससे बने दैनिक उपयोग में आने वाली चीजों का भी अपना महत्व है| जैसे झाँपी (टिपारो), झापलैया (चुलिया), सूप, दउरी, टोकरा, टोकरी, बिजना (पंखा, बेनमा) छिटबा, सुखसंती, बेलहरा आदि प्रमुख है| मध्यप्रदेश में पुरातन काल से ही मौर बांस से बनाई जाती है, जिसमें तरह-तरह की सजावटी रंगीन झिल्लियाँ, छोटे आईने आदि प्रमुख सामान लगाए जाते है| बिना मौर के विवाह नहीं हो सकता|

हमरे पछितिया है बांस के भीरा हो
बांस काट स्वामी पलंग बनबावा हो  बिच बिच फुलवा धराय|
ओही मा सुतहैं गौरा महदेव हो, गौरा का सांकर होय|
सांकर-सांकर न करा गौरा हो रचि लेवै दुसर बियाह ||
कहाँ पइहै मेरे स्वामी जी बांस के कमटी हो कहाँ पइहा खंभ कुंदेर |
कहाँ पैहै स्वामी मोरे अस धनियाँ हो रचि लेबै दुसर बिआह|
मधुवन पौउबै बांस के कमटी हो विन्द्राबन खंभ कुंदेर हो|
तोहरे मइकवा है बहनी तुम्हारी हो रचि लेवै दुसर बिआह|
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मालिन दुअरवा है बांस के भीरा हो अलग बिलग ओखीं पात है|
घोडिया कुदावत निकले दुलेरुआ हो कतरै बांस के भीरा|
सभवा मा बैठे है बपवा दशरथ जी हो मालिन ओरहन देत|
बरजा हो बरजा साहब अपने दुलरुआ का हो कतरएँ बांस के भीरा|
बारों जो होत ता बरजौ रे मालिन हो छैल बरज नहीं मानैं|
मालिन दुअरवा है बांस के भीरा हो अलग बिलग ओखीं पात है|
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एक बन नाकैं, दूसर बन नाकैं, तिसर बन लगी है पियास|
अस नहिं आय कोऊ धरम या नगरी हो एक बूँद पानी पिआए|
बंसबा के पूरे होइके निकली है शीतल देवी लिहे है जूड पानी|
केखर आहै तुम ढेरिआ लडिया हो केखर लगाए पूत|
केखर आहै बारी रे बिआही हो केखर लगए भाव उजाए|
राजा जनक केरी ढ़ेरीया लड़ी  लादे, दसरथ केरी पुतहे
राम के बारी रे बिआही हो लक्षिमन सगभाऊ जाए हो|
बघेली विवाह गीत
हरे बांस मण्डप छाये
रामलखन ब्याहन आये
जब सिया जू की होत लगुनियाँ
बरन बरन कागद आयें
जब सिया जू की आई बराते
बरन बरन मानुष आए, हरे बांस मण्डप छाये
जब सिया जू खों चढत चढ़ाये
रतन जड़े गहने आये, हरे बांस मण्डप छाये
जब सिया जू की होत बिदाई
सब सखियां आंसू ढारें
हरे बांस मण्डप छाये, रामलखन ब्याहून आए
बघेली चढावगीत
अरे हरियर बंसवा के टटिया बनवाईन दुअरे म दिहिन ओढ़काय
रानी के सोहाग मा
अरे ओहीं ओढ़कैली है आजी दुलहिन  देई देखै लागी नतनी सोहाग
रानी के सोहाग मा
अरे नतनी सोहागवा बहुत निक लागै बहुत छबि लागै
अरे जुग जुग बाढ़ें अहिवात
रानी के सोहागवा
ओहीं ओढ़कैली है माया दुलहिन देई, देखै लागी ढेरिया
सोहगी ढेरिया सोहगवा बहुत निक लागै
बहुत छवि लागै अरे जुग जुग  बाढए अहिवात
रानी के सोहाग मा
अरे चाची दुलहिन देई रानी के सोहाग मा
अरे भाभी दुलहिन देई रानी के सोहाग मा
अरे बुआ दुलहिन देई रानी के सोहाग मा
बघेली सोहाग गीत
लावा परोसा भईया लावा को घर बहिनी पियारी है हो
एक ता पियारी तोहार बहिनी  दूसर बहिनोइया है हो
लावा परोसा भईया लावा बांसे के सुपलइया से हो
गोंडवाना लावा परोसनागीत
रुनुक झुनुक बेटी मण्डप डोलें
बाबुल ने लई हैं उठे भालेंजू
के तुम बेटी मोरे सांचे में ढारी,
के गढ़ीं सुगन सुनार भलेजू|
माता कि कुखियाँ बाबुल जनम लियो है|
रूप दये भगवान भले जू|
झनक झनक बेटी मण्डप डोले
बाबुल ने लइ हे उठाय भलेंजू
बुन्देली भाँवरगीत
जा हरी रंगीली बांसुरी जा बजत काय नइया
आजरा दरु बजार फटकूं मोरे मन ऐसी आई के
समदी खो उठा उठा पटकूं/दे दे दचकूं/एक बार, दो बार, साढ़े सात बार
जा हरी रंगीली बांसुरी बाजत काय नइयां
आजरा दरु बजार दरू मोरे मन में ऐसी आई के
दूल्हा के भईया खों उठा उठा पटकूं/ दे दे दचकूं/ एक बार, दो बार, हो साढ़े नौ बार
जा हरी रंगीली बांसरी बाजत काय नइयां|
बघेली गारीगीत
समधी के भाग में नइयां लुगाई,
मै कैसों करों भाई|
दौरे दौरे गए सुनरा के, सुन्ने कि जोरू बना मोरे भाई|
मै कैसों करों भाई|
सेजों में धर दई, पलगा पे धर दई,
पर गाँव डांकों परों, लुट गई लुगाई|
मै कैसों करों भाई|
दौरे दौरे गये बसोरवा के, बांसे के जोरू बना मोरे भाई
मै कैसों करों भाई|
बांसे के जोरू छनिहा में धर दई , छनिहा पे धर दई|
आंधी चली सो उड़ गई लुगाई
मै कैसों करों भाई|
(ऐसे ही कुम्हार, लुहार, बढ़ई आदि को जोड़ते जाते है और गीत बढ़ता जाता है)
बुन्देली जेवनार गारीगीत
काहे केरी बेनिया
काहेन लागी मूंठ
हो कि कउन चरित बेनिया आई है बिकाय हो
बिकाय हो कि कउने चरित बेनिया आई हो बिकाय हो
बांसे केर बेनिया फंटी लगी मूंठ हो
फूल चरित बेनिया आई है बिकाय हो
बिकाय हो
सो बेनिया पर परिगई दुलहे के नजरिया होय हो कि
हांकत-हांकत बेनिया भई भिनसार ही कि
हांकत हांकत बेनिया भई भिनसार हो|
गोंडवाना अँजुरीगीत
मृत्यु
मनुष्य की ईहलीला जब मृत्युलोक से समाप्त होती है उसे श्मशान जिस टिकठी पर ले जाया जाता है उसको बांस से बनाया जाता है| उसमें सात किमाचियों के साथ दोनों बांस को बांधा जाता है| और श्मशान पहुँचाया जाता है परन्तु बांस के पूरे जीवनकाल में उसे आग में जलाया नहीं जाता है| इसके साथ एक मिथ भी है लोग बांस से अपने वंश को जोड़ते है और इसी सम्बन्ध के कारण ही हम बांस को जलाते नहीं है| बाँस का काम करनेवाले अधिकतर कलाकार अमावस्या को बांस का कोई भी कार्य नहीं करते है|  बसोर जाती के लोग बांस और साँस में थोडा भी अंतर नहीं मानते है इनके विचार में बांस कल्पतरू से ज्यादा महत्वपूर्ण पेड़ है| इसका प्रत्येक हिस्सा उपयोग में आता है|
शरीर त्यागने के बाद जब श्मशान ले जाते है तो बांस की टिकठी बनाई जाती है कुछ जनजातियाँ कर्मा नृत्य करती है श्मशान तक अंतिम पूजा के लिए पुराने सूप में चावल, तिल, मखाना, पैसा,और सामान लेकर जाते है| सूप को श्मशान से वापस नहीं लाते है| 
गीत
खपरैले के बिरले बांस नयन पर बूंदा चुए
ससुरा जो होते त घन के छबौतें
ससुइया के कौन विसबास नयन पर बूंदा परे
खपरैले के बिरले बांस नयन पर बूंदा चुए
जेठा जो होते त घन के छबौते
जेठानिया के कौन विसवास नयन पर बूंदा चुए
खपरैले के बिरले बांस नयन पर बूंदा चुए
देवरा जो होते त घन के छबौते
देवरनिया के कौन विसबास नयन पर बूंदा गिरे
खपरैले के बिरले बांस नयन पर बूंदा चुए
सइंया जो होते त घन के छबौतें
सौतनिया के कौन विसबास नयन से बूंदा ढुरे
खपरैले के बिरले बांस नयन पर बूंदा चुए
टप्पा (बुन्देली)
तुम जल्दी चले जाओ बाज़ार फूफा|
गेहूँ फटकबे का लाओ सूपा //1//
हमसे न बोलो तुम जाओ सजना|
पर रई दुपहरी डोलाओ बिजना //2//
गए थे बाज़ार ले आए सूपा|
झक मारत आय गए हमाए पीछा //3//
आलू गोभी है दउरी मा|
नवा साल जनउरी मा //4//
बाँस के पंलग औ लाल तकिया|
जे गोरी के संगी बड़ों रसिया //5//
सूप और परंपरा
सूप को सनातन परंपरा के अनुसार लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है सूप को पांव से नहीं छूते है कहते है कि सूप में पांव लगने या पाँव मारने से दरिद्रता आती है| सूप को कभी ख़ाली नहीं रखते है| सूप में हमेशा अन्न रखा जाता है या फिर घर की दीवाल पर टांग कर रखा जाता है| जमीन पर नहीं रखा जाता है| कार्तिक मास में दीपावली के पहले नरकचौदस के दिन देवी लक्ष्मी की बहन दरिद्रता का दिन माना जाता है| और दरिद्रता को हटाने के लिए लोग अपने रिहाइशी घर को, अपने चल-अचल संपत्ति की साफ सफाई कर रात में एक पुराना दीपक जलाकर उसे नरदा, नाली (घर का पानी निकालने का स्थान) के पास रखा जाता है और सूप से उसे हवा किया जाता है| और बोलते है दरिद्रता जा लक्ष्मी आ|
पुराने ज़माने में हुनरमंदों, कारीगरों को समाज में ऊँची दृष्टि से देखते थे| उस समय में आय का प्रमुख साधन कृषि था| कृषि कार्य में बीजों को छानने, बीनने, फटकने के लिए सूप की आवश्यकता होती है| सूप से कचड़ा, कंकड़ साफ हो जाता है| सूप की खास बात है कि अनाज को भूंस से अलग कर देता है अर्थात सूप कचड़ा और अन्न अलग-अलग कर देता है| उसे बेराय देता है|

बांस  शिल्प विविधता
मध्यप्रदेश में बाँस को आदिवासी जनजीवन का इस्पात माना जाता है| बाँस कृषि युग का लोहा है| किन्तु आधुनिक बाज़ारवाद के समय में लोहा और प्लास्टिक ने हाट (बाज़ार) में कब्ज़ा कर लिया है| फिर भी यह बाँस की जीवटता ही है जिससे मध्यप्रदेश में बाँस ने  अभी भी घरों में अपनी उपस्थिति मज़बूत कर रखी है| मध्यप्रदेश में बाँस के कलाकार मोटा काम करते है मुख्य रूप से करला, मोहला और पकिया बांस का इस्तेमाल करते है फिर इनसे कलाकार पाटा, सलाई, नार रूप में बनाते है| मध्यप्रदेश में कलाकृतियों में  सुन्दरता से अधिक उसकी मजबूती पर ध्यान दिया जाता है| कलाकार तरह-तरह के शिल्पों का निर्माण करते है| बांस शिल्प में प्रमुख रूप से सिर को धूप और बरसात से बचाने के लिए खोम्हरी, खोम्हारा और टोपी का उपयोंग होता है| घर पर महिलाएं चुरकी, छिटबा, छन्नी, आदि का इस्तेमाल अन्न को धोने में करती है और टुकना, टूकनी, खिरनई, आदि का भी यही उपयोग है| गर्मी में ठण्डी हवा के लिए बिजना (पंखा) द्वारा  हवा करते है| अन्न से कचड़ा-कंकड़ को सूपा द्वारा साफ किया जाता है| दउरी में चावल धोया जाता है| तो बांस की शहनाईं को बैगा शुभ मानते है अपने प्रत्येक नृत्य और गायन में इसे बजाते है| बड़ा छिटबा या पर्रा अनाज और बरी आदि अनाज सुखाने के काम आता है| झिटका एक बांस से मछली पकड़नेवाला के लिए होता है| बाँस कि बंसी से ही भी मछली पकड़ी जाती है और मछला में रखते है| तीतर पकड़ने के लिए  पिंजड़ा और झाला होता है| बेलहरा में पान का पत्ता रखते है| पिंजड़ा चूहा पकड़ने के लिए होता है|  गमला और कमण्डल पूजा के फूल रखने के लिए होता है| बच्चों के खेलने के लिए तोता, मोर, चिड़िया, छिटका, फिरकनी, पंखी, फिरंगी, घुनगुना काम आता है| बाँस की पिचकारियाँ मंडला में बहुत प्रसिद्ध है|  हिन्दू विवाह में बेटी की विदाई में झाँपी, झंपुली, झपलैया, भावरी सूप, दौरी, दौरा, सुखासैय्या, बक्कल, सुकसिया, सिकोसी आदि पिता के यहाँ से दिया जाता है| मचिया, कुर्सियां और सोफे बैठक को समृद्ध तो करते है डलिया, फूल डलिया, कमण्डल, चचरे या टटिया यह बाँस कि कमाचियों से बनी होती है और बाड़ के काम आती है| डिंडोरी में बांस की खटिया बगुलों की आकृति वाली कराकुल सेर कहलाती है, कमल फूलवाली पोखर और पीपल के पत्तेवाली पिपरपाता कहलाती है| धान कूटने के लिए ढेंकुली के ऊपर बांस का डंडा बंधना पड़ता है| चटाई धुप में बिछाकर बैठने के काम आती है देहात में हटका को बाड़ और गौशाला में दरवाजे के स्थान पर लगता है बांस से दीवार और पुलिया भी बनाते है| कृषि कार्य में उपयोग आने वाला फार, गैंती-फावड़े का बेंट, सांकल, बांसा, कुरैली, पंचा, घोटला, आदि प्रमुख है| धेंगुली में किसान बीज बुवाई के पहले रखते है| झाल, पथिया या पथुली  से भूंसा, चारा लाने ले जाने का काम करते है| जानवर मरना शुरू कर देता है तो उसके गर्दन में अडगा पहनते है| झपोला मुर्गिओं और बकरी के बच्चों को ढंकने के काम आता है| खेत पर मचान, कांवड़ आदि प्रमुख रूप से प्रयोग में आते है| स्टैण्ड लैंप, मटकी लैम्प, टेबल लैम्प, पेनदान, फ्लावर पॉट, मछली, सजावटी सामान, गणेश जी, दुर्गा जी शंकरजी, राजा-रानी आदि धार्मिक और सजावट के काम आते है|
और अंत में बाँस के कलाकारों की संख्या में लगातार कमी आ रही है और कुछ कलाकार सिर्फ धार्मिक रूप से आवश्यक वस्तुओं का ही निर्माण कर रहे हैं| इस समय तो प्लास्टिक ने बांस के कलाकारों को हटाने का मन बना लिया है| बांस कि दुर्दशा पर बाबा नागार्जुन कि बहुत चर्चित कविता ‘सच न बोलना’ की ये पंक्तियाँ सटीक बैठती है|
“ जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस मिला|
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस सबक रही सिखा|”

मनोज कुमार मिश्रा