बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

prichay: “कलाकार विरले होतेहै”                             ...

prichay: “कलाकार विरले होतेहै”                             ...: “कलाकार विरले होते है”                              (मनोज कुमार मिश्रा,रीवा) कलाकार अविरल होता है| अक्सर तो अतीत में जीता है और कभी भव...

कलाकार विरले होते है

“कलाकार विरले ही होते है”                           (मनोज कुमार मिश्रा,रीवा)

कलाकार अविरल होता है| अक्सर तो अतीत में जीता है और कभी भविष्य कि उडान में गोते लगाता है| हर कलाकार साधना करते समय जड़ता का प्रतिरोध करता, उसी समय के समानांतर अपनी कृति की सर्जना करता है| जो कि भविष्य के समय कालखंड में कलाकार को जीवित रखती है|
कलाकार अपनी जीवन यात्रा को बाहर से शनैः शनैः भीतर कि ओर मोड़ देता है| अपने मन के, अपने स्व के, देशकाल के बन्धनों से आज़ाद हो स्वतन्त्र, असीम, उत्साहित, उन्मुक्त गति को प्राप्त करता है| और कलाकार की कल्पना, विचार, ज्ञान-विज्ञान, भाषा, साहित्य, इतिहास और जीवन शैली में प्रयोग से प्रस्तुति अद्वितीय लोक में जीवन भोगने के सदृश्य बन जायेगी, जिससे उसके अन्दर गहनतम अँधेरे के स्थान पर प्रस्फुटित उजास स्थान लेगा| इस कारण कलाकार शैलभित्तियों से टकराने के बजाय उसे पारदर्शी और मुलायम बना देगा| और हर क्षण कई अन्य-अन्य काल खंड में विचरण करता है|
कलाकार चिंतन-मनन और अध्ययन से ज्ञान, विवेक और अनुभव अर्जित करता है| साथ ही देशकाल पाबंदियों से अपने को सम्पूर्ण स्वतन्त्र कर लेता है| यह स्वतन्त्र अभियक्ति का अनुभव ही उसके स्वभाव की वो धुरी है जो उसके द्वारा किये जा रहे जीवन के प्रत्येक कर्म में झलकती है| इस काल में, कठोरतम, जीवन के कठिनतम परिस्थियों में, श्रेष्ठतम जीवनबोध को विकसितकर जीने की कला को विकसित करता है| मुक्त मन का सम्बन्ध अपने आसपास और अपने से जुड़े समाज को मुक्ति देने वाला है| और कलाकार उदात्त की साधना में अनवरत रत रहता है| कलाकार कि जंग इन्द्रियों से है, अज्ञानता से है| और वसुधैव कुटुम्बकम की ही चाहत है| अतिवादियों से बचकर कलाकार जीवन दृष्टि को पोषित और पल्लवित करने कि सोच रखता है| समय में आकंठ निमग्न हो कलाकार समय के पार चला जाता है| देशकाल हो या शरीर यह सब तो भौतिक जगत कि बंदिशे है परन्तु कलाकार निजता के आभासी परिभाषा को मानवीयता कि विराट सृष्टि में बदल देता है| यहाँ यह बताना आवश्यक है कि कलाकार कुछ भी मिटाता नहीं, न अस्मिता, न निजता का आभास बल्कि दृष्टि और स्वभाव विस्तृत हो जाता है| व्यक्तिवाद से मुक्त करता है कलाकार का पथ|
कलाकार अपने स्वभाव से किसी परम सत्य कि पड़ताल में नहीं लगा है| उसका मन विनम्रता और करुणा का पक्षधर है| संघर्ष और समन्वय के द्वंद से उबार रहा है| और इस घोर निराशा के समय में जब सब अपने या अपनों तक ही सीमित है| उस समय में भी घोर आशावाद का प्रसार करता है| और पूरी सृजन शक्ति के साथ निराशा और निर्वासन के अँधेरे से बाहर लाने के प्रयास को रूपायित कर रहा है| जबकि वर्तमान समय के सन्दर्भ में प्राणियों में निराशा और  निर्वासन के साये मडरा रहे है| इससे इतर कलाकार हिंसा का प्रत्युत्तर, जीवन में सकारात्मकता के साधना के संकल्प को स्थापित करता है| यही कलाकार यथार्थ को झेलते हुए व्यक्ति के आत्मचेतस होने का प्रमाण है| वह अलग-अलग बोली, भाषाओं, संस्कृतियों, सभ्यताओं में एक साथ विचरण करते हुए मनुष्य में अलगाव की रेखाओं को पिघलने का सार्थक प्रयास जारी रखता है और महाशून्य सा अखंड अनुभव एवं उजास से भरे जीवन को प्रतिपल और अधिक समृद्ध करता, भरपूर जीवन को जीने योग्य बनाने कि कोशिश करता है| कलाकार अपने आप से अर्थात अपने स्वभाव से जूझकर जीवन को सत्य तक पहुँचाने का आकांक्षी है| इसमें समय, परम्परा, भाव, भाषा और मूल्यबोध उसके रचनात्मक जीवन में सहयात्री है और बाद में ये सब उसके अनुगामी हो जाते है|
कलाकार को मनोहारी और जानलेवा वादियों से गहरा अनुराग होता है| कलाकार जनश्रुतियों और पौराणिक ग्रंथों में चर्चित स्थलों, मार्गों और काल्पनिक से लगाने वाले पहाड़ों पर सहकलाकारों के साथ चढ़ाई चढ़ उसकी सत्यता को परखने और जनजीवन से विलुप्त होते जा रहे सौन्दर्य को निहारने और उन्हें समझने की उत्कंठा में संसार के भय को करीब-करीब हर बार बर्फ की तरह पिघला देते है| और इस स्वच्छ, स्वतन्त्र विचरती वायु में कलाकार बार-बार आता है नयेपन और ताज़गी के लिए| साथ ही धरोहरों, प्रतीकों और बिम्बों के प्रति आकर्षण की यायावरी साहसिक गाथा जानने के लिए कलाकार मन और जगत के कोने-कोने का भ्रमण करता रहता है|
रचनाकारों  द्वारा गढ़े हुए, रचे हुए शब्दों की ताक़त को अपने सृजनशील मस्तिष्क और अपनी दृष्टि से कथ्य की ज़मीन को परखकर, जांचकर उसे विस्तार देने में सक्षम है| और इसी कारण बेहतर संसार के स्वप्न के बूते खुद को तपाकर दर्शकों को सुगठित शब्दों में यथार्थ को महसूस करवाता| जीवनमूल्यों के प्रति सदा सचेत करते और उनकी पुनर्स्थापना के साथ सुन्दर और कुरूप को पहचानने की तमीज, भरोसेमंद और तर्कपूर्ण ढंग से जीवन के बुनियादी आग्रहों औए उसके समाजीकरण कि प्रक्रियाओं का नेतृत्व भी करते है| साथ ही इहलोक के लोकमानस में आते-जाते स्वप्नों को रूप और आकर देते हुए समय और समाज की सूक्ष्म अन्तश्चेतना में उतारकर, उसकी संवेदनात्मक थरथराहटों का अनुभव करते और करवाते है| साथ ही कलाबोध, भावधारा और बौद्धिक दृष्टि की अदभुत संगति देखने को मिलती है| कलाकारों के पास संवेदना है, भाषा और अनुभव है| इसीलिए शिल्पगत प्रयोगों के साथ-साथ कथ्य के स्तर पर भी कलाकारों ने अब प्रयोग करने शुरूकर दिये ताकि अपने द्वारा सृजित सहज सौन्दर्य के साथ अपने श्रम को इज्जत बख्शते, बिम्बों कि छटाओं में विचरण कराते है|
हर समय, सभ्यता और समाज को अपनी परंपरा, पद्धति, ज्ञानभंडार, संस्कृति, इतिहास पर गर्व होता है| यह प्रयत्न पीढ़ीयों से जारी है| इसी संचित पूंजी को आगे की पीढ़ी और फिर वो उसकी अगली पीढ़ी तक पहुंचाए यह आशा करता है| यह भी आशा करता है कि आगेवाले पीढ़ी के कलाकार इसे और समृद्ध करेगें, ज्ञान के नए क्षितिज तलाश करेगें, इसे किसी भी धर्म, जाति या फिर भौगोलिक स्तर पर बांधा या रोका नहीं जा सकता| इस सोच के साथ विश्वग्राम और वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा को कलाकार बार-बार सिद्ध करते है| कलाकार बड़े लक्ष्य कि पूर्ति में भागीदार है| कलाकार राष्ट्र निर्माण के सहायक हैं लेकिन ज़ाहिरा तौर पर यह कितने बड़े असमंजस की बात है कि हमें अपने रंगमंच की अवधारणाओं को संरक्षित विकसित करने की उतनी चिंता नहीं है जितनी कि उधार में ली गयी अवधारणाओं की है और इसका परिणाम भी वही होगा जैसा कि अन्य देशों में वहां के रंगमंच का हुआ है| इससे हमारे रंगमंच कि पहचान खतरे में पड जाएगी| और जो परिवर्तन इस समय हमारे रंगमंच में हो चूका है, उसके प्रवाह को रोकने का कोई बड़ा प्रयास अब भी दिखाई नहीं दे रहा है| और यह तो सामान्यतः सभी देख रहे है कि अच्छे समझे जाने वाले उच्य रंगमंचीय शिक्षा संस्थानों में भी सारा जोर तकनीकी ज्ञान या इसी के इर्दगिर्द सीमित हो गया है| संस्थानों के प्रशिक्षण के मूल उद्देश्य ही पीछे छूट रहे हैं| साथ ही इसे बचाने का उतराधिकार भी अन्य के मुकाबले रंगमंच प्रशिक्षण संस्थानों को ज्यादा प्राप्त है| क्योंकि इन प्रशिक्षण संस्थानों के द्वारा देश में प्रचलित और हाशिये में जा चुके रंगमंच के तरीकों को और शैलियों के पुनरवलोकन के साथ उन्हें स्थापित करने के जमीनी प्रयास किये  जाय तो और बेहतर परिणाम सामने आ सकते है| इसके लिए यहाँ के प्रशिक्षक और छात्र यही मानकर अध्यापन, अध्ययन, नवाचार और शोध करें कि वे भारत के समृद्ध, जीवन्त रंगमंच के भागीदार होंगे|
जबकि यहाँ रंगमंच की आवाज़ और उभरने के बजाय उसे दबाने कि कोशिश जारी है| थोडा लालच दे उसे खरीदने या रेहन रखने कि क़वायद चल रही है| वहीँ कुछ कलाकार जो क्षेत्रीय-जनपदीय बोलियों का रंगमंच करते है वे ज्यादातर शांत और एकान्तप्रिय साधक है| जो परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी कला साधना में निमग्न है और किसी के पक्ष में या विरोध का स्वर उत्पन्न करना, अमूमन उनका कार्य है ही नहीं|
हमें रंगमंच में धर्म की बात करना भी आवश्यक लगता है क्यों कि विश्व में रंगमंच के जन्म के जो प्रमाण मिलते है वो धार्मिक ही है| किन्तु समय के साथ धर्म और रंगमंच दोनों के रूप और तत्व बदलते रहे है| धर्म हमेंशा विराट से जुड़ने का माध्यम बनता है तो रंगमंच भी तो उसी विराट से जोड़ देने कि चेष्टा करता है| और जब कभी धर्म अपनी धुरी से हटा तो रंगमंच उसे मार्ग में लाने का प्रयास भी किया| धर्म से प्रेरित ही हमारी महान रंगमंचीय कृतियाँ है जिनका मंचन और गायन आदि अनादिकाल से प्रस्तुत हो रहा है| धर्म और रंगमंच के बीच का सम्बन्ध कभी पूरक तो कभी विसंगतिवादी कभी तनावपूर्ण| आज हम उन्हीं धार्मिक प्रतिकों और अभिप्रायों को अब लगभग रोज ही कुछ थोडा फेरबदल कर हत्या कर रहे है| दर्शक यह सब देख रहा है| हमने वर्षों पहले इसी जगह असुविधा में जब आधुनिक नाटक का मंचन देखा तो उसके रूप में और आज उसी नाटक के मंचन में वह रस नहीं है| बेसुरे बेताले नाट्य मंचित हो रहे है| जिनका न कोई सिर पकड़ में आता है न ही पांव| क्या यह वहीँ रंगमंच है जहाँ प्रस्तुति से पूर्व जर्जर कि स्थापन असुरी प्रवित्तियों से बचने के लिए किया जाता था| और आज हम उसे अपने मनोंरंजन के लिए प्रयोग में लाते है| जिसके कारण नाट्य मंचन को देखने का भाव भी दर्शकों या प्रेक्षकों का परिवर्तित हो गया है | और आज धर्म और रंगमंच दोनों ही एक दूसरे के गलाकाट विरोधी नज़र आते है| दरअसल वैश्विकरण से उपजे उपभोक्तावाद ने मनुष्य कि संवेदनाओं को सोखकर उसे निर्मम भोगवादी और मनोरंजनवादी बना दिया है| वातावरण और रहन-सहन के परिवर्तन ने आज के रंगमंच के लिए बड़ा संकट पैदा किया है| और इसे लेकर दुनिया भर के रंगकर्मियों में हायतौबा मची है| और लगातार कई तरह कि भविष्यवाणियां भी सुनाई देती रहती है| कि अब रंगमंच समाप्त हो जायेगा| रंगमंच कि जगह सिनेमा फैल जायेगा| ज्यादातर तो यह शोर सिर्फ डर पैदा करने और रंगमंच के कलाकार को पलायन करने के लिए मज़बूर करने के लिए होता है| परन्तु इस आभासी डर का परिणाम तो ढाक के तीन पात ही रहते आये है| और इस डर को आपस में, रंगमंच के आर्थिक संभावनाओं पर बातचीत से समाप्त किया जा सकता है| जिसमें ईमानदारी सबको ही बरतनी होगी| और सिर्फ अपने निजी सुख को सुरक्षित करने के प्रयास के स्थान पर समूह के समाज के सुरक्षा की भावना होनी चाहिए| ताकि समाज के लिए कलाकार एक संवेदनशील संकल्प बनकर उभर आदर्श स्थापित करे||

लोग कहते है आज रंगमंच अपने विकास के चरम पर है और भौतिक तकनीक ने रंगमंच पर हो रही क्रियाकलापों को आसान, आकर्षित करनेवाला, कम कल्पनाशील, कम खतरेवाला और मनोरंजक बना दिया है| लेकिन तकनीक की प्रयोग के इस होड़ ने रंगमंच को खंडित किया है| जिससे हमारे रंगमंच पर विश्वास और उसकी आस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है| अभिनेताओं को असुरक्षित कर दिया है| और यह भावना अभिनेता मन पिछले 10 वषों से सोच रहा है| और यह किया कराया अपनी पहचान बनाने के जल्दबाजी में विचलितों के कारण हुआ है| और रंगमंच में प्रस्तुति के तरीकों, शैलियों की अज्ञानता के कारण भी है| अफसोस कि आज अभिनेता के साथ निर्देशकों के अस्तित्व को भी ख़तरा है| तकनीक हावी हो रही है| मंच का प्राथमिक हिस्सा दर्शक और अभिनेता है तकनीक ने अभिनेताओं को हासिये पर खड़ा कर दिया है| हमने रंगमंच से सिर्फ लेना सीखा है उसे देना नहीं चाहते| इसलिए भी शायद दर्शकों की कमी हो रही है| आवश्यक है कि वर्तमान परिस्थितियों में विशुद्ध रंगमंच के रक्षा को अपना धर्म समझा जाय और उसके नैसर्गिक सौन्दर्य को बचाए रखने के आलावा उसे बंजर होने से भी बचाया जाय|