गुरुवार, 17 अगस्त 2023

मां


पैरों के घुटने और नींद।
संसार के व्योम में होम हो गए।।
आंचल, हार, पाजेब, करधन सब था।
पर मेरे पास उनकी अपनी खास चप्पलें।
जिन पर स्थापित, देवी होती वो स्वयं।।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

शेर

न होठों में हरकत, न ज़ुबा में जुम्बिश
बस नज़रें मिली और बात हो गई।।

रविवार, 16 अक्तूबर 2022

श्रेष्ठ


श्रेष्ठ


सफलता के अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकृति होती है और समय के साथ बदलती रहती है

सफलता के अलग अलग विभिन्न स्तर होते है एक दिन में प्राप्त नहीं होती है और सफलता जीवन की कुछ इच्छाओं की आहूतियाँ मांगती है। जिसे देना पड़ेगा। इसलिए स्वयं कोई सफल नहीं होता बल्कि अन्य लोगों की दृष्टि में सफल होता हैI सफलता के हमारे मानक अपने आगे के पायदान में खड़े व्यक्ति को ही देखता है।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

उजास

उजास

निशा घनी काली चाहे जितनी हो लेकिन मन के उजास पर छा नहीं पाती है। रोशनी का एक कतरा ही काफी है सघन गहन अंधेरे से बाहर आने के लिए। अंधेरे य प्रकाश की कमी में प्रकृति हमारे मन में डर के भाव पैदा कर देता है जबकि प्रकृति तो संसार के सभी जीवों पर सदैव स्नेहासिक्त रहती है अनुराग करती है। और इसी डर के क्रम को एक मीठी मधुर आवाज़ बढ़ा को कई गुना बढ़ा सकती है और यही मीठी मधुर आवाज़ हर भी लेती है।

संसार के समस्त भाव मिल कर मन को संचालित करते हैं।

बुधवार, 15 जून 2022

बनाने वाले के काम

हमने बनाया अजी हमने बनाया  
गोइठा बनाया, मिट्टी कि गाडी बनाया,
चिमटा बनाया, शेर बनाया, राजा बनाया है, झाड़ू बनाया, माला बनाया।
बैल बनाया है, गधा बनाया।
पेड़ बनाया,
नर बनाया भोली भाली नार बनाया|
रोटी बनाया, मिठाई बनाया।
फूल बनाया,
कबाड़ बनाया।
 बिल्ली बनाया, बन्दर बनाया
हवन बनाया।
ईगो मोटल्ली भैसीं बनाया, उसका ख़ूबसूरत चेहरा बनाया।
आरती कि थाल बनाया, अन्नपूर्णा देवी बनाया। मुरारी और श्याम बनाया ओखे संग कंस बनाया।
गाँव बनाया, हाट बाज़ार बनाया।
लालटेन बनाया कबहूँ कबहूँ गीत बनाया।
गैल बनाया रैल बनाया कबहूँ कबहूँ पुलिस बनाया।
गुण बनाया, अवगुण बनाया, सगुन बनाया असगुन बनाया.....

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

कमबख्त

वो तो कमबख्त है जब आती है।
न नींद आती है न याद आती है।।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

* एक विक्रेता की मौत*

* एक विक्रेता की मौत*

चारों तरफ
गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ
स्कूल ही स्कूल
हॉस्पिटल ही हॉस्पिटल
रास्ते ही रास्ते
कचड़ा ही कचड़ा
बंदूकें ही बन्दूकें
दास ही दास
मॉल ही मॉल
कल्पना ही कल्पना
कम ही इनके मालिक हैं
ज्यादातर पेट में
पत्थर बाँधकर
झोपड़पट्टियों और पटरियों में
दबे पड़े है।

(मनोज मिश्रा)