रविवार, 12 अप्रैल 2015

सृजन की पीड़ा बड़ी घनी रे

चाँद से ग्रहण लगा

"चाँद सा ग्रहण"

आकाश की विशालता पर,
चाँद सा ग्रहण लगा|
एक के बाद एक,
हवा की जुम्बिश भर से हार गए मेघ
बिखर गए,
बिफर गए|
दूत भेजा मेघ ने|
कहा मेघदूत ने|
मत हिलाओ हमारे अभिमान को|
पवन ,तुम्हारा स्वाभिमान हमारे वर्षा बाण सह न सकेगा|
सुना दूत के व्यंग्यबाण- पवनदेव हुए क्रुद्ध|
और
द्रुत गति से दौड़े,
भीषण संग्राम हुआ|
टूट गए बांध-बह गयी सीमायें,
उजड़ गयी माँगें,
धरती की दुग्धधार मटमैली हो गयी|
त्रस्त हुए पशु-पक्षी, भगवान|
हे भगवान, तुमने भी अहंकार नहीं छोड़ा|
और देते रहे मर्यादा की दुहाई, योगिराज
युद्ध में दोनों हुए पस्त,
परास्त हुई प्रकृति|
प्रवित्ति जीत गयी|
हार गया मान
चतुर्दिक हुआ अपमान
आकाश की विशालता पर चाँद सा ग्रहण लगा|

(मनोज कुमार मिश्रा,रीवा,म.प्र.)