सोमवार, 19 दिसंबर 2016

कला और कल्पना

तुम्हारे होने का मैं यक़ीन करता हूँ और अगर दुनियावी लोगों को अपने ही जितना यकीन  दिला सकता। तो फिर हमारा इश्क समय के दायरे से बाहर हो जाता हमारी मुहब्बत के अमर होने का यही राज़ होता कि हमारी कहानियों को सुनाने और सुनने वाले को उस दुनिया की सैर करवाती जो इस काल खंड के परे है
कभी कभी लगता है कि समय के अनुसार मैं बहुत वषों बाद पैदा हुआ। या इस समय में मेरी कोई खास उपयोगिता नहीं है और कभी लगता है कि थोड़ी देर और हो जाती तो........कहीं संवेदनशीलता ने तो ज़्यादा जकड़ने की कोशिश तो शुरू नहीं कर दी। वजह सिर्फ इतना ही है कि चीजों को नए तरीके से देखने समझने लगा हूँ, घिसेपिटे तौर-तरीकों से मेरा इत्तेफाक नहीं है। चीजों को अपने और तुम्हारे सम्बन्ध के तराजू में तौलकर उसका भाव तय करता हूँ।
हमारे बचपन के सुख के दिन, जो अब हमारे जीवन में कभी नहीं लौटेंगे। क्या मैं कभी उसकी कोई भी स्मृति भुला सकता हूँ? उन दिनों के बारे में सोचकर मेरा मन बार-बार प्रफुल्लित हो जाता है अंतस में एक नवीन नूतन ऊँचाई के अनुभव को महसूस करने लगता हूँ।
याद आता है कि मेरे लिये किस तरह बातें सुनने के शौक को दबाना मुश्किल था। और तुम हमेशा बातों को कहती रहती थी। और मैं तुम्हारा प्यारा, मधुर स्वर सुनता रहता। नींद में डूब जाने के बाद भी मुझे तुम्हारी आकृति........
भीड़ में अपने आपको समेट कर बैठ रहता था। लोग सोचते थे/है। सोया हुआ है, सुस्त है, खोया हुआ है। जबकि मैं तुम्हारे शब्दों की खुशबू में उड़ता रहता था........आज भी तैरता रहता हूँ। यह जरूर है तुम अधिकतर मेरी कल्पना के रूप में ही दिखती हो चेहरा अब तो और कम साफ दिखता है जितना करीब पहुंचना चाहता हूँ उतना धुँधली और मोहक तुम्हारी तस्वीर हो रही है जिज्ञासा तेज़ी से बढ़ रही है। नीद से आनखे बोझिल हो जाती है। पलकें नींद से भारी हो जाती है। सब लोग सो जाते है और आधी नींद में मुझे लगता है कि बीकोई मुझे अपने कोमल हांथों से छू रहा है। मैं तो जान जाता हूँ कि यह सिर्फ  तुम्हारा स्पर्श है। और एक मीठा और चिर परिचित शब्द  कानों को सुनाई पड़ता है *उठो अब* और मैं अपने  दोनों बाजू  कंधे पर रख देता था और कहता हूँ मेरी प्यारी, मैं तुम्हें कितना ज्यादा चाहता हूँ।
और तुम्हारे होठो में उदास, मोहक मुस्कान सिमट आती है। मेरे माथे को चूमती हो और सर गोद में रख लेती हो। और उस दिन...........अच्छा! तो तुम मुझे बहुत चाहते हो। चुप्पी। सच बताओं मुझे हमेशा प्यार करोगे? कभी नहीं भूलोगे? जब मैं नहीं रहूंगी तब.....भूलोगे तो नहीं न?
मैं..................….…………....………………………

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

साँसे

जीवन जीने के लिए कला के साथ 20 वर्ष  पहले देख देखौवल हुआ, दोस्ती हुई। आरम्भ में तो लगा तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध ही मैं लगातार बस तुम्हारे पास रहने की कोशिश कर रहा हूँ, तुम्हारे निकट के लोग मुझे तुम्हारे पास फटकने ही नहीं देते थे और ऐसा भी नहीं था कि वो मुझे जबरदस्ती नहीं अाने दे रहे थे। बल्कि लगातार मेरा परीक्षण कर रहे थे कि मैं तुम्हारी निकटता या कहूँ कि दोस्ती को पाने के काबिल हूँ, मेरी नीयत साफ है या नहीं। तुम्हारी निकटता से ही मैंने खुद से दोस्ती की। खुद को जाना। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध ही मैंने तुमसे एकतरफा इश्क किया है। तुम्हारी वजह से ही मुझे मेरी आवाज़ भी अच्छी लगने लगी और तुम्हारी आवाज़ का नशा पूरे ज़माने में चढ़ गया है। अक्सर लगता रहा कि मैंने शब्दों से दोस्ती कर ली है और सुरों से इश्क। और अब तो सुरोंऔर शब्दों के साथ रहते मैं कभी अकेला नहीं होता। इन्ही के साथ चाय पीता लेता हूँ और ठण्ड में भी इन्ही के साथ रज़ाई में चुहलबाज़ी होती है। दिन ब दिन मेरी सांसो के आरोह अवरोह में सुरो और शब्दों के ही धड़कन बन गये है। तुम्हारी याद आते ही शब्द सुरो में बदल गुनगुनाने लगते है और धड़कने लय में बदल जाते है। तुम ही मेरी सबसे सीधी साधी साथी हो तुम्हारे साथ रहता हूँ तो कब सुबह से दोपहर होती है कब शाम इल्म ही नहीं होता। जब ध्यान भंग होता है तो बीते समय को उधेड़ता हूँ कि शायद सुबह के धागे कही शाम में फंसे होंगे तो निकल आएंगे। पर कितने ही पापड़ बेले पर गुज़री सुरीली शाम नहीं मिलती और वही उधेड़बुन शुरू रहती है। अब ये मेरा इश्क है या नाटक जो मुझे तुमसे बंधे रखता है। लगता है जैसे मेरी रगों में अब खून नहीं तेरा इश्क बहने लगा है। बस ये इश्क बहना जिस दिन बंद होगा उसी दिन.………। सारा सुर, शब्द, लय, ताल, धुन सब बेसुरा बेताल हो जायेगा। उम्मीद करता हूँ तेरा इश्क मेरी रगों में उम्रभर बहता रहेगा और दुनिया हमारे इश्क पर फक्र करेगी। और उम्मीद करता हूँ कि पूरी दुनिया मेरी तरह तेरे इश्क के कलाम लिखेगा, सुरों को सजाएगा, और शब्दों की रचना करेगा।
अब आगे क्या लिखूँ तुम खुद ही ज्ञान के सागर हो थोड़े को बहुत समझों तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में

मनोज कुमार मिश्रा

शनिवार, 12 नवंबर 2016

कला के नाम प्रेमपत्र

कला प्रसिद्ध कैसे होती है?
इस साल का यह प्रश्नबद प्रश्न बन कर मेरे सामने उभरा और मेरे मानस पटल पर अंकित हो गयी। और सूक्ष्म तलाश शुरू कर दी
प्रसिद्धि कला के किसी भी सूरत में अपने मूल रूप में नहों मिलती, कला अपने मूल स्वरुप में लाँन्छन, आरोप, और सजा मिलती। यह तो कलाओं के प्रत्येक  सृजन में होता है।
कला को लांछन देवलोक में भी आरम्भ से मिल रहा है, वहाँ भी कला को हेय दृष्टि से देखा जाता है।
कला को प्रसिद्धि तो उसके छाया काल में ही मिलती है।चाहे वह किसी भी भाषा, बोली, आकार में विद्यमान हो। जैसे  रामलीला, रासलीला, साहित्य, शिल्प, संगीत,  आदि
सीता की प्रसिद्धि उनके छाया रूप की ही ज्यादा है तुलसी, सूरदास, कबीर, तुकाराम, रैदास अपने समय में विरोध को भोगा है। और अपने कला सर्जना से समय , देश, काल, परिस्थितियों का जी चित्रण किया उससे उनके दैहिक रूप में रहते हुए अपने समय का जो वर्णन किया, दृश्य विक्सित किये उनके जाने के बाद, समय के साथ प्रसिद्ध हो गए।
एक बात और है की कलाकार अपनी कला को सृजित करते हुए कभी भी प्रसिद्धि की तलाश में नहीं रहता है बल्कि वह तो अपनी कला में महारत हासिल चाहता है सिद्धि प्राप्त करना चाहता है और जब अपनी कला में सिद्ध होता है तो वह शून्य होता है उसका कोई क्छ्होर नहीं होता, वह कुछ भी पछोरता नहीं है। कुछ भी अलग नहीं करता है बल्कि अपनी कला साधना  के चुम्बकीय प्रभाव से लोगो को आकर्षित करते है और कला साधकों को अपनी तरफ सम्मोहित करते है।
और इसी साधना के संत की तरह का रूप, रखना पड़ता है निर्द्वंद,

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

कला के नाम पत्र

तुम्हारे लिए सिर्फ
शब्दों की कमी से मैं लगातार जूझ रहा हूँ। कहने को रोज बहुत रहता है पर जैसे ही समय होता है कहने का, हमेशा मन मार बैठ जाता हूँ  कि कहीं तुम पूँछ न लो की तुम कैसे हो। इसका जवाब ही नहीं मिल पा रहा है तो बात आगे कैसे बढ़ेगी, हालाँकि जरूर गड़बड़ मेरी ही तरफ़ से होगी नहीं तो क्या कोई इतना सताता है परेशां करता है।
खैर आज फिर हिम्मत तो जुटा लिया पर कमबख्त शब्दों ने धोखा दे ही दिया। समय पर ये हथियार काम नहीं आये।  इस बार फिर से इशारे से बात होगी क्या? तुम्हारी इसी तासीर पर तो मैं फ़िदा हूँ। न इधर - न उधर, बिना क्रोध के चाहे कितना ही छींटाकसी करे, तुम्हारे लिए, तुम सिर्फ मुस्कुराती चलती जाती हो।
कभी कभी तो डर बहुत लगता है कि कहीं तुमने मेरी इस तंग गली से निकलना बंद कर दिया तो मैं क्या करूंगा और कुछ आता भी तो नहीं है।
खाना पीना छोड़ भी नहीं सकता क्योकि भूख बहुत लगाती है। और मुझे तो तेरा स्वाद लग गया है। कोई कुछ कहे अब तो फर्क नहीं ही पड़ता है। *बद अच्छा बदनाम बुरा* अब जो होगा देखा जायेगा।
फिलहाल इतना ही
सिर्फ तुम्हारा,
मनोज कुमार मिश्रा

बुधवार, 13 जुलाई 2016