कला प्रसिद्ध कैसे होती है?
इस साल का यह प्रश्नबद प्रश्न बन कर मेरे सामने उभरा और मेरे मानस पटल पर अंकित हो गयी। और सूक्ष्म तलाश शुरू कर दी
प्रसिद्धि कला के किसी भी सूरत में अपने मूल रूप में नहों मिलती, कला अपने मूल स्वरुप में लाँन्छन, आरोप, और सजा मिलती। यह तो कलाओं के प्रत्येक सृजन में होता है।
कला को लांछन देवलोक में भी आरम्भ से मिल रहा है, वहाँ भी कला को हेय दृष्टि से देखा जाता है।
कला को प्रसिद्धि तो उसके छाया काल में ही मिलती है।चाहे वह किसी भी भाषा, बोली, आकार में विद्यमान हो। जैसे रामलीला, रासलीला, साहित्य, शिल्प, संगीत, आदि
सीता की प्रसिद्धि उनके छाया रूप की ही ज्यादा है तुलसी, सूरदास, कबीर, तुकाराम, रैदास अपने समय में विरोध को भोगा है। और अपने कला सर्जना से समय , देश, काल, परिस्थितियों का जी चित्रण किया उससे उनके दैहिक रूप में रहते हुए अपने समय का जो वर्णन किया, दृश्य विक्सित किये उनके जाने के बाद, समय के साथ प्रसिद्ध हो गए।
एक बात और है की कलाकार अपनी कला को सृजित करते हुए कभी भी प्रसिद्धि की तलाश में नहीं रहता है बल्कि वह तो अपनी कला में महारत हासिल चाहता है सिद्धि प्राप्त करना चाहता है और जब अपनी कला में सिद्ध होता है तो वह शून्य होता है उसका कोई क्छ्होर नहीं होता, वह कुछ भी पछोरता नहीं है। कुछ भी अलग नहीं करता है बल्कि अपनी कला साधना के चुम्बकीय प्रभाव से लोगो को आकर्षित करते है और कला साधकों को अपनी तरफ सम्मोहित करते है।
और इसी साधना के संत की तरह का रूप, रखना पड़ता है निर्द्वंद,
शनिवार, 12 नवंबर 2016
कला के नाम प्रेमपत्र
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें