बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

prichay: “कलाकार विरले होतेहै”                             ...

prichay: “कलाकार विरले होतेहै”                             ...: “कलाकार विरले होते है”                              (मनोज कुमार मिश्रा,रीवा) कलाकार अविरल होता है| अक्सर तो अतीत में जीता है और कभी भव...

कलाकार विरले होते है

“कलाकार विरले ही होते है”                           (मनोज कुमार मिश्रा,रीवा)

कलाकार अविरल होता है| अक्सर तो अतीत में जीता है और कभी भविष्य कि उडान में गोते लगाता है| हर कलाकार साधना करते समय जड़ता का प्रतिरोध करता, उसी समय के समानांतर अपनी कृति की सर्जना करता है| जो कि भविष्य के समय कालखंड में कलाकार को जीवित रखती है|
कलाकार अपनी जीवन यात्रा को बाहर से शनैः शनैः भीतर कि ओर मोड़ देता है| अपने मन के, अपने स्व के, देशकाल के बन्धनों से आज़ाद हो स्वतन्त्र, असीम, उत्साहित, उन्मुक्त गति को प्राप्त करता है| और कलाकार की कल्पना, विचार, ज्ञान-विज्ञान, भाषा, साहित्य, इतिहास और जीवन शैली में प्रयोग से प्रस्तुति अद्वितीय लोक में जीवन भोगने के सदृश्य बन जायेगी, जिससे उसके अन्दर गहनतम अँधेरे के स्थान पर प्रस्फुटित उजास स्थान लेगा| इस कारण कलाकार शैलभित्तियों से टकराने के बजाय उसे पारदर्शी और मुलायम बना देगा| और हर क्षण कई अन्य-अन्य काल खंड में विचरण करता है|
कलाकार चिंतन-मनन और अध्ययन से ज्ञान, विवेक और अनुभव अर्जित करता है| साथ ही देशकाल पाबंदियों से अपने को सम्पूर्ण स्वतन्त्र कर लेता है| यह स्वतन्त्र अभियक्ति का अनुभव ही उसके स्वभाव की वो धुरी है जो उसके द्वारा किये जा रहे जीवन के प्रत्येक कर्म में झलकती है| इस काल में, कठोरतम, जीवन के कठिनतम परिस्थियों में, श्रेष्ठतम जीवनबोध को विकसितकर जीने की कला को विकसित करता है| मुक्त मन का सम्बन्ध अपने आसपास और अपने से जुड़े समाज को मुक्ति देने वाला है| और कलाकार उदात्त की साधना में अनवरत रत रहता है| कलाकार कि जंग इन्द्रियों से है, अज्ञानता से है| और वसुधैव कुटुम्बकम की ही चाहत है| अतिवादियों से बचकर कलाकार जीवन दृष्टि को पोषित और पल्लवित करने कि सोच रखता है| समय में आकंठ निमग्न हो कलाकार समय के पार चला जाता है| देशकाल हो या शरीर यह सब तो भौतिक जगत कि बंदिशे है परन्तु कलाकार निजता के आभासी परिभाषा को मानवीयता कि विराट सृष्टि में बदल देता है| यहाँ यह बताना आवश्यक है कि कलाकार कुछ भी मिटाता नहीं, न अस्मिता, न निजता का आभास बल्कि दृष्टि और स्वभाव विस्तृत हो जाता है| व्यक्तिवाद से मुक्त करता है कलाकार का पथ|
कलाकार अपने स्वभाव से किसी परम सत्य कि पड़ताल में नहीं लगा है| उसका मन विनम्रता और करुणा का पक्षधर है| संघर्ष और समन्वय के द्वंद से उबार रहा है| और इस घोर निराशा के समय में जब सब अपने या अपनों तक ही सीमित है| उस समय में भी घोर आशावाद का प्रसार करता है| और पूरी सृजन शक्ति के साथ निराशा और निर्वासन के अँधेरे से बाहर लाने के प्रयास को रूपायित कर रहा है| जबकि वर्तमान समय के सन्दर्भ में प्राणियों में निराशा और  निर्वासन के साये मडरा रहे है| इससे इतर कलाकार हिंसा का प्रत्युत्तर, जीवन में सकारात्मकता के साधना के संकल्प को स्थापित करता है| यही कलाकार यथार्थ को झेलते हुए व्यक्ति के आत्मचेतस होने का प्रमाण है| वह अलग-अलग बोली, भाषाओं, संस्कृतियों, सभ्यताओं में एक साथ विचरण करते हुए मनुष्य में अलगाव की रेखाओं को पिघलने का सार्थक प्रयास जारी रखता है और महाशून्य सा अखंड अनुभव एवं उजास से भरे जीवन को प्रतिपल और अधिक समृद्ध करता, भरपूर जीवन को जीने योग्य बनाने कि कोशिश करता है| कलाकार अपने आप से अर्थात अपने स्वभाव से जूझकर जीवन को सत्य तक पहुँचाने का आकांक्षी है| इसमें समय, परम्परा, भाव, भाषा और मूल्यबोध उसके रचनात्मक जीवन में सहयात्री है और बाद में ये सब उसके अनुगामी हो जाते है|
कलाकार को मनोहारी और जानलेवा वादियों से गहरा अनुराग होता है| कलाकार जनश्रुतियों और पौराणिक ग्रंथों में चर्चित स्थलों, मार्गों और काल्पनिक से लगाने वाले पहाड़ों पर सहकलाकारों के साथ चढ़ाई चढ़ उसकी सत्यता को परखने और जनजीवन से विलुप्त होते जा रहे सौन्दर्य को निहारने और उन्हें समझने की उत्कंठा में संसार के भय को करीब-करीब हर बार बर्फ की तरह पिघला देते है| और इस स्वच्छ, स्वतन्त्र विचरती वायु में कलाकार बार-बार आता है नयेपन और ताज़गी के लिए| साथ ही धरोहरों, प्रतीकों और बिम्बों के प्रति आकर्षण की यायावरी साहसिक गाथा जानने के लिए कलाकार मन और जगत के कोने-कोने का भ्रमण करता रहता है|
रचनाकारों  द्वारा गढ़े हुए, रचे हुए शब्दों की ताक़त को अपने सृजनशील मस्तिष्क और अपनी दृष्टि से कथ्य की ज़मीन को परखकर, जांचकर उसे विस्तार देने में सक्षम है| और इसी कारण बेहतर संसार के स्वप्न के बूते खुद को तपाकर दर्शकों को सुगठित शब्दों में यथार्थ को महसूस करवाता| जीवनमूल्यों के प्रति सदा सचेत करते और उनकी पुनर्स्थापना के साथ सुन्दर और कुरूप को पहचानने की तमीज, भरोसेमंद और तर्कपूर्ण ढंग से जीवन के बुनियादी आग्रहों औए उसके समाजीकरण कि प्रक्रियाओं का नेतृत्व भी करते है| साथ ही इहलोक के लोकमानस में आते-जाते स्वप्नों को रूप और आकर देते हुए समय और समाज की सूक्ष्म अन्तश्चेतना में उतारकर, उसकी संवेदनात्मक थरथराहटों का अनुभव करते और करवाते है| साथ ही कलाबोध, भावधारा और बौद्धिक दृष्टि की अदभुत संगति देखने को मिलती है| कलाकारों के पास संवेदना है, भाषा और अनुभव है| इसीलिए शिल्पगत प्रयोगों के साथ-साथ कथ्य के स्तर पर भी कलाकारों ने अब प्रयोग करने शुरूकर दिये ताकि अपने द्वारा सृजित सहज सौन्दर्य के साथ अपने श्रम को इज्जत बख्शते, बिम्बों कि छटाओं में विचरण कराते है|
हर समय, सभ्यता और समाज को अपनी परंपरा, पद्धति, ज्ञानभंडार, संस्कृति, इतिहास पर गर्व होता है| यह प्रयत्न पीढ़ीयों से जारी है| इसी संचित पूंजी को आगे की पीढ़ी और फिर वो उसकी अगली पीढ़ी तक पहुंचाए यह आशा करता है| यह भी आशा करता है कि आगेवाले पीढ़ी के कलाकार इसे और समृद्ध करेगें, ज्ञान के नए क्षितिज तलाश करेगें, इसे किसी भी धर्म, जाति या फिर भौगोलिक स्तर पर बांधा या रोका नहीं जा सकता| इस सोच के साथ विश्वग्राम और वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा को कलाकार बार-बार सिद्ध करते है| कलाकार बड़े लक्ष्य कि पूर्ति में भागीदार है| कलाकार राष्ट्र निर्माण के सहायक हैं लेकिन ज़ाहिरा तौर पर यह कितने बड़े असमंजस की बात है कि हमें अपने रंगमंच की अवधारणाओं को संरक्षित विकसित करने की उतनी चिंता नहीं है जितनी कि उधार में ली गयी अवधारणाओं की है और इसका परिणाम भी वही होगा जैसा कि अन्य देशों में वहां के रंगमंच का हुआ है| इससे हमारे रंगमंच कि पहचान खतरे में पड जाएगी| और जो परिवर्तन इस समय हमारे रंगमंच में हो चूका है, उसके प्रवाह को रोकने का कोई बड़ा प्रयास अब भी दिखाई नहीं दे रहा है| और यह तो सामान्यतः सभी देख रहे है कि अच्छे समझे जाने वाले उच्य रंगमंचीय शिक्षा संस्थानों में भी सारा जोर तकनीकी ज्ञान या इसी के इर्दगिर्द सीमित हो गया है| संस्थानों के प्रशिक्षण के मूल उद्देश्य ही पीछे छूट रहे हैं| साथ ही इसे बचाने का उतराधिकार भी अन्य के मुकाबले रंगमंच प्रशिक्षण संस्थानों को ज्यादा प्राप्त है| क्योंकि इन प्रशिक्षण संस्थानों के द्वारा देश में प्रचलित और हाशिये में जा चुके रंगमंच के तरीकों को और शैलियों के पुनरवलोकन के साथ उन्हें स्थापित करने के जमीनी प्रयास किये  जाय तो और बेहतर परिणाम सामने आ सकते है| इसके लिए यहाँ के प्रशिक्षक और छात्र यही मानकर अध्यापन, अध्ययन, नवाचार और शोध करें कि वे भारत के समृद्ध, जीवन्त रंगमंच के भागीदार होंगे|
जबकि यहाँ रंगमंच की आवाज़ और उभरने के बजाय उसे दबाने कि कोशिश जारी है| थोडा लालच दे उसे खरीदने या रेहन रखने कि क़वायद चल रही है| वहीँ कुछ कलाकार जो क्षेत्रीय-जनपदीय बोलियों का रंगमंच करते है वे ज्यादातर शांत और एकान्तप्रिय साधक है| जो परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी कला साधना में निमग्न है और किसी के पक्ष में या विरोध का स्वर उत्पन्न करना, अमूमन उनका कार्य है ही नहीं|
हमें रंगमंच में धर्म की बात करना भी आवश्यक लगता है क्यों कि विश्व में रंगमंच के जन्म के जो प्रमाण मिलते है वो धार्मिक ही है| किन्तु समय के साथ धर्म और रंगमंच दोनों के रूप और तत्व बदलते रहे है| धर्म हमेंशा विराट से जुड़ने का माध्यम बनता है तो रंगमंच भी तो उसी विराट से जोड़ देने कि चेष्टा करता है| और जब कभी धर्म अपनी धुरी से हटा तो रंगमंच उसे मार्ग में लाने का प्रयास भी किया| धर्म से प्रेरित ही हमारी महान रंगमंचीय कृतियाँ है जिनका मंचन और गायन आदि अनादिकाल से प्रस्तुत हो रहा है| धर्म और रंगमंच के बीच का सम्बन्ध कभी पूरक तो कभी विसंगतिवादी कभी तनावपूर्ण| आज हम उन्हीं धार्मिक प्रतिकों और अभिप्रायों को अब लगभग रोज ही कुछ थोडा फेरबदल कर हत्या कर रहे है| दर्शक यह सब देख रहा है| हमने वर्षों पहले इसी जगह असुविधा में जब आधुनिक नाटक का मंचन देखा तो उसके रूप में और आज उसी नाटक के मंचन में वह रस नहीं है| बेसुरे बेताले नाट्य मंचित हो रहे है| जिनका न कोई सिर पकड़ में आता है न ही पांव| क्या यह वहीँ रंगमंच है जहाँ प्रस्तुति से पूर्व जर्जर कि स्थापन असुरी प्रवित्तियों से बचने के लिए किया जाता था| और आज हम उसे अपने मनोंरंजन के लिए प्रयोग में लाते है| जिसके कारण नाट्य मंचन को देखने का भाव भी दर्शकों या प्रेक्षकों का परिवर्तित हो गया है | और आज धर्म और रंगमंच दोनों ही एक दूसरे के गलाकाट विरोधी नज़र आते है| दरअसल वैश्विकरण से उपजे उपभोक्तावाद ने मनुष्य कि संवेदनाओं को सोखकर उसे निर्मम भोगवादी और मनोरंजनवादी बना दिया है| वातावरण और रहन-सहन के परिवर्तन ने आज के रंगमंच के लिए बड़ा संकट पैदा किया है| और इसे लेकर दुनिया भर के रंगकर्मियों में हायतौबा मची है| और लगातार कई तरह कि भविष्यवाणियां भी सुनाई देती रहती है| कि अब रंगमंच समाप्त हो जायेगा| रंगमंच कि जगह सिनेमा फैल जायेगा| ज्यादातर तो यह शोर सिर्फ डर पैदा करने और रंगमंच के कलाकार को पलायन करने के लिए मज़बूर करने के लिए होता है| परन्तु इस आभासी डर का परिणाम तो ढाक के तीन पात ही रहते आये है| और इस डर को आपस में, रंगमंच के आर्थिक संभावनाओं पर बातचीत से समाप्त किया जा सकता है| जिसमें ईमानदारी सबको ही बरतनी होगी| और सिर्फ अपने निजी सुख को सुरक्षित करने के प्रयास के स्थान पर समूह के समाज के सुरक्षा की भावना होनी चाहिए| ताकि समाज के लिए कलाकार एक संवेदनशील संकल्प बनकर उभर आदर्श स्थापित करे||

लोग कहते है आज रंगमंच अपने विकास के चरम पर है और भौतिक तकनीक ने रंगमंच पर हो रही क्रियाकलापों को आसान, आकर्षित करनेवाला, कम कल्पनाशील, कम खतरेवाला और मनोरंजक बना दिया है| लेकिन तकनीक की प्रयोग के इस होड़ ने रंगमंच को खंडित किया है| जिससे हमारे रंगमंच पर विश्वास और उसकी आस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है| अभिनेताओं को असुरक्षित कर दिया है| और यह भावना अभिनेता मन पिछले 10 वषों से सोच रहा है| और यह किया कराया अपनी पहचान बनाने के जल्दबाजी में विचलितों के कारण हुआ है| और रंगमंच में प्रस्तुति के तरीकों, शैलियों की अज्ञानता के कारण भी है| अफसोस कि आज अभिनेता के साथ निर्देशकों के अस्तित्व को भी ख़तरा है| तकनीक हावी हो रही है| मंच का प्राथमिक हिस्सा दर्शक और अभिनेता है तकनीक ने अभिनेताओं को हासिये पर खड़ा कर दिया है| हमने रंगमंच से सिर्फ लेना सीखा है उसे देना नहीं चाहते| इसलिए भी शायद दर्शकों की कमी हो रही है| आवश्यक है कि वर्तमान परिस्थितियों में विशुद्ध रंगमंच के रक्षा को अपना धर्म समझा जाय और उसके नैसर्गिक सौन्दर्य को बचाए रखने के आलावा उसे बंजर होने से भी बचाया जाय|

शनिवार, 26 सितंबर 2015

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सोमवार, 14 सितंबर 2015

पितृऋण

 ऋण

जिनके कारण हम इस दुनिया में आए, और सुखद अहसास के साथ जीवित है जिन्होंने हमें जनम दे दिया, जिन्होंने हमारे लिए मेहनत की, हमारी ख़ुशी के लिए खून - पसीना एक कर दिया| उन प्रिय आत्मीय जनों के परलोक सिधार जाने की बात को आप इतनी आसानी से छोड़ देंगे? नहीं ना? इन्सान अभी इतना एहसान फ़रामोश नहीं हो गया है यह तो है ही की गुजर जाने के बाद उस आदमी के बारे में हमारा दुःख कम हो, उससे भी बढ़कर बात है| अहसान मानना| इस कृतज्ञ भाव से श्राद्ध विधि - श्रद्धा विधि से किया जाए तो जो आदमी चला गया उसकी अपेक्षा हमारे ही के मन को शक्ति मिलती जाती है| इसमें सिर्फ धर्म कहीं नहीं आता|

रविवार, 12 अप्रैल 2015

सृजन की पीड़ा बड़ी घनी रे

चाँद से ग्रहण लगा

"चाँद सा ग्रहण"

आकाश की विशालता पर,
चाँद सा ग्रहण लगा|
एक के बाद एक,
हवा की जुम्बिश भर से हार गए मेघ
बिखर गए,
बिफर गए|
दूत भेजा मेघ ने|
कहा मेघदूत ने|
मत हिलाओ हमारे अभिमान को|
पवन ,तुम्हारा स्वाभिमान हमारे वर्षा बाण सह न सकेगा|
सुना दूत के व्यंग्यबाण- पवनदेव हुए क्रुद्ध|
और
द्रुत गति से दौड़े,
भीषण संग्राम हुआ|
टूट गए बांध-बह गयी सीमायें,
उजड़ गयी माँगें,
धरती की दुग्धधार मटमैली हो गयी|
त्रस्त हुए पशु-पक्षी, भगवान|
हे भगवान, तुमने भी अहंकार नहीं छोड़ा|
और देते रहे मर्यादा की दुहाई, योगिराज
युद्ध में दोनों हुए पस्त,
परास्त हुई प्रकृति|
प्रवित्ति जीत गयी|
हार गया मान
चतुर्दिक हुआ अपमान
आकाश की विशालता पर चाँद सा ग्रहण लगा|

(मनोज कुमार मिश्रा,रीवा,म.प्र.)

शनिवार, 31 जनवरी 2015

राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव की खबर


मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र, रीवा (म.प्र.) का प्रतिष्ठा आयोजन 20 से 24 दिसंबर को हुआ

वरिष्ठ रंगकर्मी स्व.अलखनंदन को समर्पित नाट्योत्सव

“राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव”

रीवा में पांच दिवसीय राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव का शुभारम्भ संस्कृति विभाग, भारत सरकार के सहयोग से 20 दिसंबर को स्वयंबर सभागार में मध्य प्रदेश के ऊर्जा, खनिज एवं जनसंपर्क मंत्री श्री राजेंद्र शुक्ल जी ने दीप प्रज्जवन के साथ नगाड़े को ध्वनित कर किया और अपने उद्बोधन में शिखर सम्मान से सम्मानित स्व. अलखनंदन जी रंगमंच को रचनाधर्मी एवं प्रयोगधर्मी बताया और रीवा से आपके सानिध्य को भी रेखांकित किया साथ ही कहा कि रीवा में रंगकर्म करना बंजर जमीन पर खेती करने जैसा है परन्तु मण्डप आर्ट्स ने यह जो दुरूह कार्य करने का बीड़ा उठाया है इसके लिए मध्यप्रदेश शासन की तरफ से रीवा में नाट्य कर्मियों के लिए हर संभव मदद दी जाएगी| इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार श्री चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’, जयराम शुक्ल, दिनेश कुशवाहा, देवेन्द्र सिंह, अशोक सिंह, डॉ. विद्याप्रकाश तिवारी, योगेश त्रिपाठी, सेवाराम त्रिपाठी, कैलाशचंद सक्सेना सहित जिले के साहित्यकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवीयों और  दर्शक उपस्थित रहे | पांच दिन के नाट्योत्सव में प्रतिदिन सभागार भरा रहा जब की रीवा जिला ठंड से कांप रहा था नाट्योत्सव में पांच दिनों में पांच अभिनय शैलियाँ देखने को मिली ,जिसमे क्रमशः लोकनाट्य, कहानी मंचन ,हास्य, ट्रेजिडी और समसामयिक प्रोपोगेन्डा नाटक थे इसमें 20 दिसंबर शाम 6:30 को सघन सोसाइटी भोपाल की नाट्य प्रस्तुति छाहुर का मंचन हुआ| विनोद मिश्रा, सुनील सिंह के द्वारा रचित इस लोक नाट्य को निर्देशित किया आनंद मिश्रा ने | आनंद मिश्रा को उ.म.क्षे.सा.के. नागपुर की योजना से भोपाल में छाहुर का प्रशिक्षण दे रहे है| छाहुर बघेलखंड का लोकनाट्य है और प्रस्तुति में प्रयुक्त बिम्बों, बघेलीगीत-सगीत, लोकोक्तियों, उख्खानों और बोली ठिठोली ने तो दर्शको को भावविभोर कर दिया| 21 को सुबह 11 बजे कलावीथिका का शुभारम्भ विजय अग्रवाल, विनय अम्बर, वसंत काशीकर, हिमान्शू राय ने की| कला प्रदर्शनी में विनय अम्बर, के, सुधीर, डॉ.प्रणय, अर्चना कुमार के चित्र और शिल्प प्रदर्शित किये गए यह प्रदर्शनी 24 दिसंबर को शाम 6:00 बजे तक चली | इसी शाम प्रदेश की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘विवेचना’ जबलपुर की प्रस्तुति उदयप्रकाश की कहानी ‘मौसाजी जय हिन्द’ को वसंत काशीकर ने निर्देशित किया था| बुन्देली बोली और किस्सागोई के तरीके ने नाटक को प्रभावी बनाया| मौसाजी जो की अपने परिवार को आगे बढ़ाते हुए देखना कहते है मौसा जी का अपना झूठा संसार है| सपनों में जीते मौसाजी किसी के भी सामने अपने को हीन नहीं दिखने देते है| 22 की शाम रंगदूत सीधी की प्रस्तुति नौटंकी शैली में “थैंक्यू बाबा लोचनदास उर्फ़ नर-नारी का मंचन हुआ| गीत संगीत की अधिकता में कथ्य कहीं थोडा अछूता रह गया परन्तु प्रस्तुति पूर्णरूपेण मनोरंजक थी| 23 दिस. की शाम मण्डप आर्ट की प्रस्तुति “धोखा” का मंचन हुआ| अल्बेयर कामू के नाटक (द मिसअंडरस्टैंडिंग) के बघेली रूपांतर को निर्देशित किया भारतेंदु नाट्य अकादेमी से प्रशिक्षित मनोज मिश्रा ने| नाटक में बूढ़े नौकर के चरित्र में सुभाष गुप्ता ने प्रभावशाली अभिनय किया| प्रकाश परिकल्पना में मनोविश्लेषनात्मक प्रभाव दिखा साथ ही नाट्योत्सव की यह एक मात्र यथार्थवादी अभिनय शैली पर केन्द्रित नाटक था और नाटक दर्शकों पर गहरा प्रभाव डालने में सफल रहा| राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव की अंतिम प्रस्तुति 24 दिसंबर को ‘समानांतर’ इलाहबाद के नाटक टोपी शुक्ला से हुई| राही मासूम रज़ा लिखित टोपी शुक्ला को अनिल रंजन भौमिक ने मनोशारीरिक अभिनय शैली में पिरोया| राकेश यादव ने टोपी के चरित्र को जीवंत कर दिया| नाटक हिदू मुस्लिम संबंधों की गहरी पड़ताल में दिखा| नाटक का कथ्य, संयोजन, ध्वनी प्रभाव, संगीत, और अभिनय सबसे मजबूती के साथ था| और निर्देशक ने नाटक में न तो राजनीतिक और न ही शिक्षात्मक ही प्रभाव पड़ने दिया बल्कि उन्होंने समाज के रुख को दिखाया| नाट्योत्सव की अंतिम प्रस्तुति को देखने बाद राजेंद्र शुक्ल जी मंत्री, ऊर्जा, खानिज एवं जनसंपर्क मंत्री समारोह को पूर्णरूप से सफल बताया और दर्शको को बधाई दी| और विश्वास दिलाया कि अगले राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव को हम विवाहघर में नहीं सभागर में देखेगें| और अगर आप विवाहघर को सभागार में परिवर्तित कर सकते है| तो रीवा में राजकपूर आर्ट एण्ड कल्चरल सेंटर बनाने की बात कही जिसका कार्य शुरू हो चूका है| आई.जी. रीवा ज़ोन श्री पवन श्रीवास्तव ने कहा की हमने विश्वास ही नहीं था कि रीवा में राष्ट्रीय नाट्य समारोह की कल्पना भी की जा सकती है| पवन श्रीवास्तव जी ने अलखनंदन जी पर अपना संस्मरण सुनाया और बताया कि अलखनंदन जी को प्राप्त शिखर सम्मान की कमेटी में थे| अलखनंदन का रंगमंच जीवटता को प्रेरित करता है| मण्डप आर्ट्स के इस आयोजन से रीवा में हो रंगमंच को देश में पहचान मिलेगी| मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र के निदेशक मनोज मिश्रा ने अपने उद्बोधन में रंग अलख नाट्योत्सव को अलखनंदन जी के रंगमंच से प्रेरित बताया साथ ही अलख जी के रंगमंच पर अवदान को रेखांकित किया और रीवा में सभागार और पूर्वाभ्यास के लिए स्थान मुहैया करने के लिए प्रशासन से मांग रखी| और पूर्वाभ्यास के लिए कभी तानसेन काम्प्लेक्स की छत, कभी क्लीनिक, कभी पार्कों में यहाँ के कलाकार निरंतर पूर्वाभ्यास कर रहें है |और पूर्वाभ्यास केवल नाटक ही नहीं अपितु संगीत, नृत्य, पेंटिंग, स्कल्पचर, आदि के लिए भी आवश्यक है| इन सभी क्षेत्र में कलाकार प्रस्तुतियों के अवसरों की स्थितियों के अलावा समय में भी निरंतर रियाज़ करते है| और यही कला साधना हमें पूर्णता की ओर ले जाता है और अंतिम लक्ष्य का रास्ता कभी खत्म नहीं होता है मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केन्द्र के प्रतिष्ठा आयोजन राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव में उपस्थित दर्शकों के प्रति आभार वयक्त किया| अन्य वक्ता के रूप में अलख जी के मित्र एवं रंगकर्मी डॉ.विद्या प्रकाश तिवारी, चित्रकार विनय अम्बर, नाट्य लेखक योगेश त्रिपाठी, हनुमंत शर्मा, अशोक सिंह एवं के. सुधीर आदि प्रमुख थे|

अर्थदोष के बारे में धोखा


कामू के नाटक the misunderstanding में मुख्य पात्र माँ ,बेटी ,और बेटा और गूगां नौकर ,सच्चाई से सामना करवाने के लिए बहू है |जोकि मार्था को सच्चाई से साक्षात्कार करवाती है |
हमारी बघेली लोककथा में पुत्र ,पिता ,बड़ा भाई ,बच्चा और एक नौकर है | जहाँ कामू के नाटक में घटना स्थल होटल है वहीँ इस कथा में घटना धर्मशाला की है |इस कारण नाटक का रूपांतरण करते समय हमने बघेलखंडी सभ्यता को ही मूल मानकर माँ – बेटी के स्थान पर पिता पुत्र किया है |जो की बघेली कटा है और कथा के जड़ में लोभ छुपा है |पैसे की हाय-हाय ,रोजगार की कमी ,लालच ,किसानों का पलायन ,शहरीकरण ,भूख के दर से मजदूर बनने की कथा है |भौतिक सुख-सुविधाओं की तलाश है |मनुष्य के दुखों –सुखों सपनों इच्छाओं प्रतिक्रियाओं ,असमर्थता , निष्फलता ,अवरोध एवं विरोध से समाज में प्रतिरोध की भावना लालच को जन्म देती है |और इस महत्वाकांक्षा का परिणाम हत्या या आत्महत्या होती है मार्था (परिवर्तित चरित्र पुत्र) समाज में रईस ,सम्मानित सूची में शामिल होना चाहता है |परन्तु हम उसे एसा नहीं दिखाना चाहते की समाज में उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाय वरन हम मुख्य पात्र के रूप परिस्थिति को पेश करना चाहते है |जिसके कारण घटना दुखांत रूप लेती है और प्रभाव बढ़ जाता है |the misunderstanding जीवन की निर्रथकता को सार्थक समझानेवालों से तर्क करता है और मैं यहीं नाटक के मोह में फास जाता हूँ और यही मोह कथा (नाटक) की अभिकल्पना ,परिकल्पना की जमीन बनता है |नाटक का बघेली रूपांतरण के साथ बघेलखंडी सस्कृति के साथ संगीत ,गीत ,नृत्य ,वेशभूषा ,स्थान भी आ गया ,बघेली मिटटी का रंग आ गया |गूंगा नौकर आम जनता की तरह घटना को देखता और महसूस करता है |परन्तु उसका अपने मत का कोई महत्व नहीं है |मनुष्य में असंतुष्टि के मुहावरे को चरित्रार्थ करता है |

इस तरह अंतर्राष्ट्रीय नाटक को बघेली बोलिबानी में उतारने का प्रयास है

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

रीवा में रंगकर्म की अपनी सुदीर्घ परंपरा है| दरअसल रंगकर्म की गतिविधियों का जो रूप हम देख रहे है|उसे साकार रूप देने में पित्र पुरुषों को भुलाया नहीं जा सकता है|अर्थात परंपरा बनाना भी बड़े जतन का काम होता है|जिसे राज कपूर मेमोरियल सभागार बनाने से इस सृजनात्मक कार्य की गति में वृद्धि होगी |नाटकों ने रीवा में रचनात्मक क्षेत्र में ज्यादा स्थान घेरा है |किन्तु आज तक रीवा संभाग में नाट्य मंचन के लिए उपयुक्त सभागार नहीं है| साथ ही पूर्वाभ्यास के लिये भी आज तक सार्थक स्थान नहीं मिल पाया है कभी  तानसेन काम्प्लेक्स की छत ,कभी क्लीनिक, स्कूल,मैदान ,पार्कों में पूर्वाभास निरंतर चल रहा है |और पूर्वाभ्यास केवल नाट्य में ही नहीं अपितु संगीत,नृत्य,पेंटिंग,स्कल्पचर आदि के लिए भी आवश्यक है |इन सभी क्षेत्रों में कलाकार प्रस्तुतियों के अवसरों की स्थितियों के अलावा समय में भी  इरांतर रियाज़ करते है|मगर कभी आन्दोलन की स्थिति में आकर भी एसी सहूलियतों की शिकायत नहीं करते है| परन्तु यदि जिला प्रशासन ऐसा स्थान सुलभ कराये तो निश्चय ही यह रीवा के कलाकारों के साथ ही साथ प्रदेश ही नही देश देशभर के कलाकारों के लिए एक अहम् कदम होगा|

प्रथम राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव रीवा

मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र, रीवा (म.प्र.) का प्रतिष्ठा आयोजन 20 से 24 दिसंबर को हुआ
वरिष्ठ रंगकर्मी स्व.अलखनंदन को समर्पित नाट्योत्सव
“राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव”


रीवा में पांच दिवसीय राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव का शुभारम्भ संस्कृति विभाग, भारत सरकार के सहयोग से 20 दिसंबर को स्वयंबर सभागार में मध्य प्रदेश के ऊर्जा, खनिज एवं जनसंपर्क मंत्री श्री राजेंद्र शुक्ल जी ने दीप प्रज्जवन के साथ नगाड़े को ध्वनित कर किया और अपने उद्बोधन में शिखर सम्मान से सम्मानित स्व. अलखनंदन जी रंगमंच को रचनाधर्मी एवं प्रयोगधर्मी बताया और रीवा से आपके सानिध्य को भी रेखांकित किया साथ ही कहा कि रीवा में रंगकर्म करना बंजर जमीन पर खेती करने जैसा है परन्तु मण्डप आर्ट्स ने यह जो दुरूह कार्य करने का बीड़ा उठाया है इसके लिए मध्यप्रदेश शासन की तरफ से रीवा में नाट्य कर्मियों के लिए हर संभव मदद दी जाएगी| इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार श्री चन्द्रिका प्रसाद ‘चन्द्र’, जयराम शुक्ल, दिनेश कुशवाहा, देवेन्द्र सिंह, अशोक सिंह, डॉ. विद्याप्रकाश तिवारी, योगेश त्रिपाठी, सेवाराम त्रिपाठी, कैलाशचंद सक्सेना सहित जिले के साहित्यकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवीयों और  दर्शक उपस्थित रहे | पांच दिन के नाट्योत्सव में प्रतिदिन सभागार भरा रहा जब की रीवा जिला ठंड से कांप रहा था नाट्योत्सव में पांच दिनों में पांच अभिनय शैलियाँ देखने को मिली ,जिसमे क्रमशः लोकनाट्य, कहानी मंचन ,हास्य, ट्रेजिडी और समसामयिक प्रोपोगेन्डा नाटक थे इसमें 20 दिसंबर शाम 6:30 को सघन सोसाइटी भोपाल की नाट्य प्रस्तुति छाहुर का मंचन हुआ| विनोद मिश्रा, सुनील सिंह के द्वारा रचित इस लोक नाट्य को निर्देशित किया आनंद मिश्रा ने | आनंद मिश्रा को उ.म.क्षे.सा.के. नागपुर की योजना से भोपाल में छाहुर का प्रशिक्षण दे रहे है| छाहुर बघेलखंड का लोकनाट्य है और प्रस्तुति में प्रयुक्त बिम्बों, बघेलीगीत-सगीत, लोकोक्तियों, उख्खानों और बोली ठिठोली ने तो दर्शको को भावविभोर कर दिया| 21 को सुबह 11 बजे कलावीथिका का शुभारम्भ विजय अग्रवाल, विनय अम्बर, वसंत काशीकर, हिमान्शू राय ने की| कला प्रदर्शनी में विनय अम्बर, के, सुधीर, डॉ.प्रणय, अर्चना कुमार के चित्र और शिल्प प्रदर्शित किये गए यह प्रदर्शनी 24 दिसंबर को शाम 6:00 बजे तक चली | इसी शाम प्रदेश की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘विवेचना’ जबलपुर की प्रस्तुति उदयप्रकाश की कहानी ‘मौसाजी जय हिन्द’ को वसंत काशीकर ने निर्देशित किया था| बुन्देली बोली और किस्सागोई के तरीके ने नाटक को प्रभावी बनाया| मौसाजी जो की अपने परिवार को आगे बढ़ाते हुए देखना कहते है मौसा जी का अपना झूठा संसार है| सपनों में जीते मौसाजी किसी के भी सामने अपने को हीन नहीं दिखने देते है| 22 की शाम रंगदूत सीधी की प्रस्तुति नौटंकी शैली में “थैंक्यू बाबा लोचनदास उर्फ़ नर-नारी का मंचन हुआ| गीत संगीत की अधिकता में कथ्य कहीं थोडा अछूता रह गया परन्तु प्रस्तुति पूर्णरूपेण मनोरंजक थी| 23 दिस. की शाम मण्डप आर्ट की प्रस्तुति “धोखा” का मंचन हुआ| अल्बेयर कामू के नाटक (द मिसअंडरस्टैंडिंग) के बघेली रूपांतर को निर्देशित किया भारतेंदु नाट्य अकादेमी से प्रशिक्षित मनोज मिश्रा ने| नाटक में बूढ़े नौकर के चरित्र में सुभाष गुप्ता ने प्रभावशाली अभिनय किया| प्रकाश परिकल्पना में मनोविश्लेषनात्मक प्रभाव दिखा साथ ही नाट्योत्सव की यह एक मात्र यथार्थवादी अभिनय शैली पर केन्द्रित नाटक था और नाटक दर्शकों पर गहरा प्रभाव डालने में सफल रहा| राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव की अंतिम प्रस्तुति 24 दिसंबर को ‘समानांतर’ इलाहबाद के नाटक टोपी शुक्ला से हुई| राही मासूम रज़ा लिखित टोपी शुक्ला को अनिल रंजन भौमिक ने मनोशारीरिक अभिनय शैली में पिरोया| राकेश यादव ने टोपी के चरित्र को जीवंत कर दिया| नाटक हिदू मुस्लिम संबंधों की गहरी पड़ताल में दिखा| नाटक का कथ्य, संयोजन, ध्वनी प्रभाव, संगीत, और अभिनय सबसे मजबूती के साथ था| और निर्देशक ने नाटक में न तो राजनीतिक और न ही शिक्षात्मक ही प्रभाव पड़ने दिया बल्कि उन्होंने समाज के रुख को दिखाया| नाट्योत्सव की अंतिम प्रस्तुति को देखने बाद राजेंद्र शुक्ल जी मंत्री, ऊर्जा, खानिज एवं जनसंपर्क मंत्री समारोह को पूर्णरूप से सफल बताया और दर्शको को बधाई दी| और विश्वास दिलाया कि अगले राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव को हम विवाहघर में नहीं सभागर में देखेगें| और अगर आप विवाहघर को सभागार में परिवर्तित कर सकते है| तो रीवा में राजकपूर आर्ट एण्ड कल्चरल सेंटर बनाने की बात कही जिसका कार्य शुरू हो चूका है| आई.जी. रीवा ज़ोन श्री पवन श्रीवास्तव ने कहा की हमने विश्वास ही नहीं था कि रीवा में राष्ट्रीय नाट्य समारोह की कल्पना भी की जा सकती है| पवन श्रीवास्तव जी ने अलखनंदन जी पर अपना संस्मरण सुनाया और बताया कि अलखनंदन जी को प्राप्त शिखर सम्मान की कमेटी में थे| अलखनंदन का रंगमंच जीवटता को प्रेरित करता है| मण्डप आर्ट्स के इस आयोजन से रीवा में हो रंगमंच को देश में पहचान मिलेगी| मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केंद्र के निदेशक मनोज मिश्रा ने अपने उद्बोधन में रंग अलख नाट्योत्सव को अलखनंदन जी के रंगमंच से प्रेरित बताया साथ ही अलख जी के रंगमंच पर अवदान को रेखांकित किया और रीवा में सभागार और पूर्वाभ्यास के लिए स्थान मुहैया करने के लिए प्रशासन से मांग रखी| और पूर्वाभ्यास के लिए कभी तानसेन काम्प्लेक्स की छत, कभी क्लीनिक, कभी पार्कों में यहाँ के कलाकार निरंतर पूर्वाभ्यास कर रहें है |और पूर्वाभ्यास केवल नाटक ही नहीं अपितु संगीत, नृत्य, पेंटिंग, स्कल्पचर, आदि के लिए भी आवश्यक है| इन सभी क्षेत्र में कलाकार प्रस्तुतियों के अवसरों की स्थितियों के अलावा समय में भी निरंतर रियाज़ करते है| और यही कला साधना हमें पूर्णता की ओर ले जाता है और अंतिम लक्ष्य का रास्ता कभी खत्म नहीं होता है मण्डप सांस्कृतिक शिक्षा कला केन्द्र के प्रतिष्ठा आयोजन राष्ट्रीय रंग अलख नाट्योत्सव में उपस्थित दर्शकों के प्रति आभार वयक्त किया| अन्य वक्ता के रूप में अलख जी के मित्र एवं रंगकर्मी डॉ.विद्या प्रकाश तिवारी, चित्रकार विनय अम्बर, नाट्य लेखक योगेश त्रिपाठी, हनुमंत शर्मा, अशोक सिंह एवं के. सुधीर आदि प्रमुख थे|

राम की शक्तिपूजा, ब्रोशर

डिंडोरी (म.प्र.) में मंचित हुआ पहला नाटक ‘राम की शक्तिपूजा’
दिनांक - 26/01/2015 

राम की शक्तिपूजा निराला जी की वैश्विक कविता है| कविता में राम नाम का व्यक्ति है.जो मन में कहीं हार चुका है| परन्तु जब जामवन्त समझाते है कि आप शक्ति की उपासना कीजिये और उन्हें प्रसन्न कीजिये तब राम शक्ति की आराधना करते है और आत्म समर्पण की स्थिति पर पहुंचाते है| जब अभ्यास साधना बनती है, तब साधना आराधना बनती है और अंत में वही आराधना शक्ति प्रदान कराती है| राम की शक्तिपूजा रचनात्मक, तर्कपूर्ण विचार की तरह दिखाया गया है कविता को देखना अलग अनुभव होता सा जान पड़ता है| संवाद कभी लयात्मक कभी सूत्रधारात्मक शैली का उपयोग किया है| नाटक में राम को आम चरित्र की तरह पेश किया गया है नाटक में दलित विमर्श और सामाजिक समीकरण है| साथ ही अपने आप से द्वंद की स्थिति में दिखता है जिसे अभिनेताओं ने बखूबी से उभरा है | सूत्रधार/देवी- राज तिवारी ‘भोला’, राम – अखण्ड प्रताप सिंह, रावण – सुभाष गुप्ता, विभीषण – शैलेन्द्रमणि कुशवाहा, हनुमान – राजेश शुक्ला ‘राजन’, जामवंत – कमलेश वर्मा, लक्ष्मण – स्वतंत्र कुमार ने चरित्रों को निभाया| निर्देशन मनोज कुमार मिश्रा का था