गुरुवार, 14 जुलाई 2016

कला के नाम पत्र

तुम्हारे लिए सिर्फ
शब्दों की कमी से मैं लगातार जूझ रहा हूँ। कहने को रोज बहुत रहता है पर जैसे ही समय होता है कहने का, हमेशा मन मार बैठ जाता हूँ  कि कहीं तुम पूँछ न लो की तुम कैसे हो। इसका जवाब ही नहीं मिल पा रहा है तो बात आगे कैसे बढ़ेगी, हालाँकि जरूर गड़बड़ मेरी ही तरफ़ से होगी नहीं तो क्या कोई इतना सताता है परेशां करता है।
खैर आज फिर हिम्मत तो जुटा लिया पर कमबख्त शब्दों ने धोखा दे ही दिया। समय पर ये हथियार काम नहीं आये।  इस बार फिर से इशारे से बात होगी क्या? तुम्हारी इसी तासीर पर तो मैं फ़िदा हूँ। न इधर - न उधर, बिना क्रोध के चाहे कितना ही छींटाकसी करे, तुम्हारे लिए, तुम सिर्फ मुस्कुराती चलती जाती हो।
कभी कभी तो डर बहुत लगता है कि कहीं तुमने मेरी इस तंग गली से निकलना बंद कर दिया तो मैं क्या करूंगा और कुछ आता भी तो नहीं है।
खाना पीना छोड़ भी नहीं सकता क्योकि भूख बहुत लगाती है। और मुझे तो तेरा स्वाद लग गया है। कोई कुछ कहे अब तो फर्क नहीं ही पड़ता है। *बद अच्छा बदनाम बुरा* अब जो होगा देखा जायेगा।
फिलहाल इतना ही
सिर्फ तुम्हारा,
मनोज कुमार मिश्रा

बुधवार, 13 जुलाई 2016