गुरुवार, 22 नवंबर 2018

अमर शहीद ठाकुर रणमत सिंह

*अमर *शहीद *ठाकुर *रणमत *सिंह *महानाट्य
ठाकुर रणमत सिंह के द्वारा गुरिल्ला सैनिको, पिंढारियों और अपने साथियों के साथ मिलकर प्रथम स्वतंत्रता से पहले ही अंग्रेजो को छोटे छोटे युद्ध में परास्त कर चुके थे। रणमत सिंह के प्रमुख साथियों में लाल श्यामशाह, रंजीत राय, दलथम्मन सिंह, धीर सिंह, पंजाब सिंह, सहामत अली आदि प्रमुख हैं। 1857 में मेरठ से उठी चिंगारी रीवा से होते हुE झाँसी की तरफ जा रही थी। संग्राम में कूदने का न्यौता मिला। विंध्य के महाराजा रघुराज सिंह जी देव में स्वीकार किया और मिलकर स्वतन्त्रता संग्राम में आहूति देने का वचन दिया। बघेलखण्ड में अपने सबसे विश्वासपात्र ठाकुर रणमत सिंह को स्वतन्त्रता का क्रांतिवीर नियुक्त किया। लगातार अंग्रेजों को कई युद्ध में परास्त किया। रणमत सिंह ने स्वतंत्रता के महासमर को बघेलखण्ड में जनक्रांति का रूप दे दिया था। जान सहयोग रणमत सिंह को मिल रहा था। वहीं आकस्मिक हमलों से अनजान अंग्रेजों को अपने सैनिकों से हाथ धोना पद रहा था इस कारण पॉलिटिकल एजेण्ट विलोबी आर्सवान रणमत सिंह से खफा था। रणमत सिंह के सर पर 2000 रूपए का ईनाम घोषित हो गया था। जालसाजी से माहाराज के दीवान के द्वारा रणमत सिंह को रीवा के जालपा मंदिर के तलघर में पकड़वा दिया था और 1860 में उन्हें फाँसी दी गई। परिवार के लोग का मत कुछ दूसरा है। नाटक में रणमत सिंह के रणचातुर्य और बहादुरी की चर्चा सथियों में सदैव रही। आप बघेलखं की भौगोलिक स्थिति एवं परिस्थितियों के अच्छे जानकार थे, जातियों और जनजातियों में आपके बातों को माना जाता था। आपकी बातें साथियों के लिए पत्थर की लकीर थी।

बाजारू रौनक

बाज़ार में रौनक
सोना बिक रहा है इधर
है बिक रही ककड़ी
गद्दा उस तरफ़ बेचा जाता है
यहाँ मिलता है जूता
वहाँ भोजन ले सकते है
उस गली में गोल गप्पे
ये गेहूँ-चावल की छल्लियाँ लगी
टपरे पर पान मिलेगा
कोने के ठेले पर चाय ले लो
इधर कहीं बिकता है पानी
अपने से नहीं आया
उतारा है इसे
उत्तर से दक्षिण उधर पूरब से पश्चिम
हमें खरीदना और बेचना आता है
बाज़ार बिमा कोई हैसियत नहीं हमारी

क्या हम बाज़ारू...?  है हम बाज़ारू।

रक्षक

कला
संस्कृति
सभ्यता
के रक्षक सिर्फ दो वर्ग हैं
उनके पोषक
उनके शोषक

क्यों

क्यों साथ नहीं चलता तुम्हारे?
तुम्हारे पीछे चलती है जनता
मैं
इंसानों के साथ रहता हूँ

संघर्ष

दिन में है तपन
सूर्यदेव अग्नि परोसते है,
और हम सिर्फ बहाते पसीना।
न सम्मान
न स्वाभिमान
न ही संतुष्टि।
सब है मजदूर
एक से दूसरे
दूसरे से तीसरे के।
न तू भाई है, न बहन
न माता है न पिता
न मित्र है, बेटा भी नहीं
है सर्फ मजदूर।
असर है यह .....
दिन में तपन है।
रात-ठंडी-शीतल है क्या?
मृत पड़े है सब, नींद के आगोश में
है यहाँ माता! पिता! पुत्र! सखा! बहन! भाई।
सम्मान जागा - स्वाभिमान भी साथ है।
स्वयं भू हैं हम-अब अपने मालिक हैं।
न है डर।
भय भी नहीं है।
रात की गोद में
नींद के चादर में लिपटे
मीठे स्वप्न बाहों में भरे
दुनिया के मजदूरों की मजदूरी से बेखबर मस्त सो रहे है हम।

बुधवार, 14 नवंबर 2018

रीत प्रीत की

हुनर मक्कारी का क्या खूब सीखा है।
नाम याद रखते हो काम भूल जाते हो।।

प्रिय हो, प्रियतम हो, प्रेयसी हो।
रंग हो, रंगकर्म हो, रंगमंच हो।।

खैर तुम अपने हो, वो अब नज़दीक नहीं दिल के।
रैन गई, रीत गयी, प्रीत भई, सीख भई।।

सोमवार, 12 नवंबर 2018

पलायन

पलायन जारी है|
हर कामकाजी छोड रहा है
अपने
हिस्से का सूरज |
कोई है जो जानता है
काम को कैसे समाप्त करना है
हम तो मानते है |
जनता है
जो सताई जा रही है|
हम छोटे स्वार्थ भी नहीं पूरे करते |
पर कोई है जो सब करता है
नैतिक
अनैतिक
डंके की चोट पर |
इंतजार है हमें किसी का

मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

सपना टूटेगा

सपना टूटेगा
…………

लाइट करता हूँ तो, सेट छूट जाता है।
सेट करता हूँ तो प्रापर्टी फिसल जाती है।
प्रापर्टी करता हूँ तो कॉस्ट्यूम छूट जाती है।
कॉस्ट्यूम करता हूँ तो मेकअप रगड़ जाता है।
मेकअप करता हूँ तो एक्टिंग भूल जाती है।
एक्टिंग करता हूँ डायरेक्शन बोल जाता है।
डायरेक्शन करता हूँ दर्शक भटक जाता है।
दर्शक ढूँढता हूँ और सरलीकृत दर्शक बनाता हूँ।
अंत में इंसान ढूँढता हूँ और इंसान बना रहना चाहता हूँ।
बस सपना है तो सपना ही सही।
करना है।
हमें ही सब करना है।

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

लोक संस्कृति और बाज़ारवाद

लोकसंस्कृति पर बाजारवाद हावी, चुनौतियां बढ़ीं

नए दौर में भारतीय लोकसंस्कृति पर बाजारवाद हावी है और लोकसंस्कृति को समझना और सहेजना चुनौतीपूर्ण हो गया है। संस्कृति का स्वामित्व बदला है, जिनका सरोकार गांव, गरीब, लोक संस्कृति, मनुष्य, पाठक, दर्शक या चिंतक से नहीं है। अपितु ग्राहक व विज्ञापनदाता से है।
इस नए दौर में गांव, गरीब व लोक की संस्कृति गायब हो गई है। बाजारवाद के दौर में संस्कृति के संरक्षकों को पोषकों को अच्छी पूँजी मिलने तो लगी, किन्तु साथ ही लोक के व्यवहार के प्रति असुरक्षा भी बढ़ी है। इसके चलते देश, समाज व संस्कृति के प्रति लोक का लगाव भी खत्म होता जा रहा है। कुछ त्यौहारों, कुछ संस्कारों ने और कुछ संबंधों ने हमें बांध रखा है अपनी संस्कृति के प्रति अन्यथा प्रायोजित कार्यक्रमों में घंटों गवां देने के बाद भी हमारे हाथ अधिकतर शून्य होता है। इसलिए हम कह सकते हैं  बाजार के दौर में संस्कृति मुख्य भूमिका से नेपथ्य में सरकती जा रही है। दुर्भाग्यजनक है कि रामलीला रासलीला नाच, माच, आदि भी समाप्त हो रही है। सारा ध्यान प्रयोगशीलता पर केंद्रित है। और अब तो कार्पोरेट घरानों के अलावा माफिया तक अब संस्कृति उत्सव और प्रतियोगिता का आयोजन करने लगे हैं। महंत जी, व्यास जी का स्थान पर प्रबंधक जी ने लिया हैं, जो सत्ता के गलियारों में लाइजनिंग कर सके। उन्होंने कहा कि हमारी लोक संस्कृति कई तरह के संकटों से गुजर रही है। सोशल मीडिया के प्रभाव ने सत्ता में परिवर्तन किया है, जिससे सत्ता को भी सजग रहना चाहिए। इन प्रबंधकों और जोड़ जुगाड़ फिट करने वालों से संस्कृति का क्या भलहोगा यह प्रश्न तो बनता है
आज कार्यक्रमों पर नियंत्रण पूंजीवादी कर रहे हैं। नए दौर में लोक पर पूंजी, तकनीक व संचार क्रांति हावी है, इसलिए संस्कृति पर चारों तरफ से चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों का मुकाबला सांस्कृतिकर्मियों को ही करना है। हमारी संस्कृति में वो ताकत है कि वह देश की राजनीति को साफ सुथरा आइना भी दिखाती है। संसार में पहले आदर्श का दौर था, लेकिन आज बहुत कुछ बदल गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लोगों तक खबरे, रपटें, सूचनाएँं पहुंचाना आसान हो गया है। पाठक या दर्शक अब फीचर की जगह छोटी-छोटी खबरें पढ़ना या देखना पंसद करते हैं। रंगकर्म, लोकगीत, लोकनृत्य या जाति विशेष के व्यवहार आज विज्ञापन, प्रायोजकों और अनुदान पर निर्भर है, इसलिए कार्यक्रम की गुणवत्ता पर ध्यान न देकर उसके प्रचार -प्रसार पर ध्यान देते है। टारगेट दर्शकों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है बल्कि उनके टारगेट में कुछ और ही होता हैै, क्योकि लोककला के विकास और लोक कलाकारो के वेतन का भुगतान भी तो यहीं से आता है। जबकि आना चाहिए लोक से, लोक संस्कृति के रखरखाव की पूर्ण जिम्मेदारी लोक की ही होगी न कि सरकार की?
सोशल मीडिया से आए बदलाव के कारण लोक व्यवहार में हर जगह बदलाव आया है और उसके सम्मान का, स्थान का कुछ हद तक ह्रास भी हुआ है। सोशल मीडिया लोककलाकारों के लिए चुनौतीपूर्ण हो गई है। सोशल मीडिया ने कला को कलाकारों को, कलाकार से प्रचारक में बदल दिया है।
यह भूमंडलीकरण का दौर है जहां बाजारवाद अपनी चरम अवस्था में परचम लहरा रहा है। मानवीय मूल्यों का व्याकरण बराबर बदल रहा है। इस बदलने की गति में जब जीवन के उद्येश्य भी बदले हैं तो उथल-पुथल तो स्वाभाविक है, इसका फायदा लगातार बाजारवाद उठा रहा है। बाजार और बाजारवाद में घनीभूत अंतर है। बाजारवाद एक वृति है जो जीवन को मूल्यों से अलग करने का काम करती है। जहां भ्रांति ही एक पराकाष्ठा बन गई हो वहाँ निश्चित तौर पर विकल्पों की भीड़ दिखाई देगी। यह भीड़ सम्पूर्ण जीवन के पारंपरिक वितान को भाड़ में झोकने के लिए व्यापक भूमिका का निर्वहन करती है। ऐसे में मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए व्यक्ति की सामाजिक लोकवादी चेतना से ही जमीनी ताकत मिलती है उसी के साथ खिलवाड़ करना कहाँ तक जायज है यह सोचने का विषय है।
भारतीय संस्कृति के मूल्य अपनी आधुनिकता के अतीत में अधिक मूल्यवान थे। आज संस्कृतिकर्मी अपनी ईमानदारी से दूर एक ठगी हुई समझदारी बन कर रह गया है। लेकिन बौद्धिकता की नीलामी जब संस्कृति की आवश्यकता बन गई हो तब यह सोचना कम खतरनाक नहीं है। इस तरह आज के समय में लोकसंस्कृति और बाजारवाद की जड़ों में परखना बहुत जरूरी काम है। इसका मूल्यांकन होना चाहिए। यह बात आज याद दिलाई जा सकती है। आज जब पूंजीवादी बाज़ारवाद के दौर में भूमंडलीकरण की चपेट से चरमराई हुई दुनिया हमारे सामने है यह बात उस समय सोची भी नहीं जा सकती थी जब लोक की संस्कृति, विभाजित हिंदुस्तान की संस्कृति अपने आधुनिकीकरण के दौर से गुजर रही थी। आधुनिकता एक बड़ा जीवन मूल्य है। समय में जीवन्तता का विराट स्वर आधुनिकता की गहनता से आता है। यह गहनता प्रगति के पथ पर नैसर्गिक चेतना से आती है। हमारी संस्कृति मनुष्यता को रूढ़ियों की जटिल संरचना से मुक्ति दिलाये। राजनैतिक संरक्षणों के अपने शुरुआती दौर में जनमाध्यमों के अभाव में भी भारतीय कलाकारों ने वह सब किया जिसे आज याद किया जा सकता है।  तब संस्कृति और संस्कार समाजिकता की आकांक्षी हुआ करती थी।
आर्थिक अभाव के इस युग में लोक कलाकारों अपनी जीवटता से इतिहास रचा है। कलाकारों की माली हालात किसी से छिपी नहीं हैं। लेकिन उनमे मानवीय जिजीविषा का अकूत उत्साह भरा था, जो हमारी संस्कृति को नवजीवन देता है।
किन्तु शासकीय अनुदानों और अन्य प्रायोजकों से भरे विस्थापित संस्कृति से कुछ भी बहुत श्रेष्ठ हमें मिलनेवाला है इस पर संदेह है साथ ही इस रास्ते के कई खतरे है, सबसे बड़ा खतरा तो सभ्यता और संस्कृति के असमय मृत्यु का है। लेकिन जब तक वह समाज में है कलाकारों का भरण पोषण समाज से है वह अपने अपनों के पास है  पुनः नई त्वरा के साथ नवीन संशोधित मूल्यों के साथ उभरती रहेगी।
भारतीय लोक संस्कृति दिन प्रतिदिन अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती हुई प्रगति के पथ पर अग्रसर तो हुई। परंतु अपनों मे विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते हुए। सम्पूर्ण भारत में लोकसंस्कृति पर कार्यक्रमों का एक सिलसिला चल पड़ा। कार्यक्रमों का योगदान हो सकता है परंतु अधिकतर लोक की संस्कृति के स्थान पर भोग की संस्कृति ने ली है 10 सदस्य और वहीं 10 ही मुखिया भी होते है  प्रताप नारायण मिश्र के शब्दों में “सरस्वती तो हमारे पेट में बसती है...जो सबका सर्वस्व हमारे पेट में ठांस-ठांस कर न भरे वही नास्तिक। जो हमारी बेसुरी तान पर वाह ! वाह ! न किए जाए वह कृश्तान और हमसे जो चूँ भी न करे वह दयानंदी।” इस तरह की बेबाक प्रतिक्रिया से वर्तमान लोक का विकास हो रहा है। लोकलुभावन संस्कृति के संकट से गुजरने के बावजूद अपनी सम्पूर्ण तत्परता से समाजिकता के पथ पर मनुष्यता के हित और अधिकारों की लड़ाई लड़ते विरले कलाकार भी है। जो वर्तमान सत्ता के लगातार टकराता रहा, यह इसकी जीवटता का ओज है। जैसे जैसे देश पूंजीवादी ढांचे में अपने को तब्दील करता गया, संस्कृति और सभ्यता उनके हाथ की कठपुतली बनती चली गई।
जिस तरह साम्राज्यवाद के गर्भ से पूंजीवाद का उदय हुआ उसी तरह पूंजीवाद से  बाज़ारवाद का भूमंडलीकरण का रास्ता खुला। दरअसल भूमंडलीकरण वैश्वीकरण की एक चाल है। यह जो पूरी दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर देनी की एक परिभाषा भूमंडलीकरण के पुरोधाओं ने गढ़ी है, यह पूंजीवादी स्वप्न को साकार करने की एक ओछी मानसिकता है। यह विविधता के प्राकट्य भाव को प्रकृतिक मूल्यों से अलग करना चाहते हैं। यह पूरी दुनिया को एक सूत्र में छल लेने के आकांक्षी हैं। भूमंडलीकरण का स्वप्न प्रद्योगिकी और तकनीकी को एक संस्कृति के रूप में समाज में ला रहा है। जहां समाज की स्वायतता और निजता पर एक रणनीति के रूप में प्रहार किया जा रहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि प्रद्योगिकी और तकनीकी को भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ अस्त्र के रूप में प्रयोग करना खतरनाक है, इसका उपयोग मनुष्यता के हित में भी हो सकता है। लेकिन इन सब पर जिस वर्चस्वशाली वर्ग (दलाल,कमीशनखोर )का कब्जा है, वह साम्राज्यवादी नीतियों के अनुयाई बाज़ार पैदा करने वाले लोग हैं। और आज लोक कलाकार भी इन्हीं के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है।
इधर कुछ वर्षों से ‘बाजारवाद’ शब्द का चलन काफी बढ़ा है। यह एक नई चाल है। अर्थशा्स्त्र का सहारा लेकर कुछ पूंजीवादी भट्टाचार्याओं ने नई भड़न्त बकनी शुरू की है कि बाजारवाद अर्थशास्त्र के शब्दकोश में ही नहीं है। दरअसल बाजारवाद एक जाल का नाम है जो इधर तेजी से फैल रहा है। यह पूंजीवाद का एक धारदार हथियार है, जो अपनी चपेट में लेकर व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता को बेचने पर मजबूर करता है। इसका उदय दुनिया के ‘डिजिटलीकरण’ के साथ हुआ है। दुनिया की तेजी से जिस कदर डिजिटल हुई बाजारवाद ने उसे हथिया लिया। यहीं से सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ईवेन्ट होने की कहानी शुरू होती है। इसका बड़ा कारण ‘डिजिटलीकरण’ है। आज कलाकार अपनी निजता और स्वायत्तता को बेचे  बिना जीवन यापन नहीं कर सकता, लोक कलाकारों को हॉट बनाकर पेश किया जा रहा है। इसी विज्ञापन प्रायोजित दौर को हमारे यहाँ बजारवाद कहा जाता है। बाजारवाद के बारे में कुछ सैद्धांतिक तथ्य भी देखने जरूरी हैं। क्योंकि यह टर्म पश्चिम से ही आया। पश्चिम के धनी देशों के लिए पूरब के विकासशील तमाम देश बाजार का मैदान बने हुये हैं। जहां वह चीजों को बेचने में सफल हो रहे हैं। बहरहाल एक महत्वपूर्ण परिभाषा को कोड करते हैं। बेंजामिन गिंसबर्ग का कहना है कि “पश्चिमी सरकारों ने बाजार कि कार्यप्रणाली का इस्तेमाल लोकप्रिय परिप्रेक्षों और भावनाओं को नियंत्रित करने में किया। ‘विचारों का बाजार’ जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान बना था, वस्तुतः उच्च वर्गों के विश्वासों और विचारों का प्रचार और निचले वर्गों कि विचारधारात्मक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता को दबाने का काम करता है। इस बाजार के निर्माण के जरिये पश्चिमी सरकारों ने सामाजिक आर्थिक स्थिति और विचारधारात्मक शक्ति के बीच मजबूत और स्थायी कड़ियाँ निर्मित की हैं, और उच्च वर्गों को इस बात कि इजाजत दी है कि वे अपने बीच से ही किसी अन्य के भरण पोषण के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल करें।...खास तौर पर तौर पर सयुंक्त राज अमेरिका में विचारों के बाजार पर छाए रहने में उच्च और उच्च-मध्यवर्गों की क्षमता ने आम तौर पर इन तबकों को इस बात की इजाजत दी है कि वे समूचे समाज के राजनीतिक यथार्थबोध को और राजनीतिक तथा सामाजिक, सांस्कृतिक संभावनाओं को अपने तरीके से गढ़ें। पश्चिमी लोग जहां आम तौर पर बाजार को विचारों की आम स्वतन्त्रता के बराबर मानते हैं।
परन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में वर्तमान संस्कृति हमेशा किसी एक द्वारा ही निर्देशित, मुक्त बाजार के कामकाज को लेकर उनके प्रस्थापनाओं पर आधारित है जो विशेषतया विवादास्पद नहीं हैं। जिसे शायद होना चाहिए। सांस्कतिक माध्यमों के वे हिस्से, जिनकी पहुँच एक अच्छे-खासे दर्शक-श्रोता वर्ग तक हो सकती है, वो शासकीय बड़े निगम हैं संचालनालय है। और वे अपने मूल विचार से भी कहीं ज्यादा राजनैतिक और साख रखने वाले समूहों से जुड़े हुये हैं। अन्य व्यापारों की तरह ही वे लोककला को उसके संस्कारों को हमारी लोक संस्कृति को एक उत्पाद की तरह ख़रीदारों को बेचते हैं। उनका बाजार है विज्ञापनदाताओं का वर्ग और हम उनके ‘उत्पाद’ हैं कलाकार-दर्शक-श्रोता। इसमें भी उनका खास पूर्वग्रह अपेक्षाकृत धनी कलाकार- सेलिब्रिटी-दर्शक-श्रोता की ओर होता है, जिनके कारण विज्ञापन की दरें बढ़ जाती हैं। हम उनके इशारे पर नाचते है। लोक लगातार शिकार होता रहता है। यह ठगी का एक तंत्र है।  लोक को संरक्षण देना एक किस्म का चमकीला मुलम्मा बन कर रह गया है। उधर लगातार बाजारू नाटकीयता द्वारा अपनी छाप लोक पर डाल कर जीवन-मूल्यों में एक भ्रम पैदा कर रही है। यह भ्रम इतना भयानक है कि इसके अगोस में एक भरी-पूरी पीढ़ी निरापद विचारशून्यता में जी रही है। और यही पीढ़ी अपने पूरे वर्ग के साथ देश के प्रमुख मंचों में बड़ा हिस्सा बन कर उभरती है।बाजार के प्रभाव में हमारा कोई भी जनपक्षधर मूल्य नहीं। हम दर्शकों को उनके मतलब की चीजें न दिखाकर अपने प्रायोजक के प्रयोजन की सामाग्री लगातार परोसते हैं। यह है हमारी संस्कृति नीति यानी आज की लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के दम्भ का दोगला चरित्र।
परिणाम :- हम कह सकते हैं कि हमारे सामने बदले हुये दौर का एक विशाल ऊसर मैदान पड़ा है। अब हम इसमे कहाँ तक भारतीय लोक के जीवन मूल्यों को तलाशें इसकी भी एक सीमा है। जो भी हो हम अखिलेश अखिल के शब्दों में कह सकते हैं- “शायद आप को यकीन न हो, लेकिन सच्चाई यही है कि लोक कलाकार और लोककला मूर्च्छा में है।और उसके पोषक और शोषक के कारण। मूर्छित लोकसंस्कृति खूब बिक रही है। लोगों के बीच इसकी काफी मांग है। ऐसी संस्कृति में दलालों की खूब चल रही है। दर्शकों के बीच इन दलालों की इज्जत है। समाज में इनकी प्रतिष्ठा है, रौब है।

मनोज कुमार मिश्रा
9165949213

सोमवार, 22 जनवरी 2018

बघासुर

बघासुर (लोकआख्यान)
उमरिया शहडोल डिंडोरी और उसके आसपास के क्षेत्र में बाघ देवता की कथा प्रचलित है कथा के मूल में जंगल के राजा बाघ (शेर) हैं। कथा का रूप समयानुसार रूप बदल रहा है या यूं काहे कहे की ज्यादा प्रभावशील बन पड़ा है। कथा में आदिशक्ति के बाल रूप की चर्चा है। कथा देवी वैष्णव की कथा से मिलती है। उक्त कथा में पूरा प्रसंग वैष्णव देवी का और भैरव की सत्ता को जड़ से उखाड़ने की है साथ ही आम जन के मन उत्पन्न भैरव के भय को उनके मन में मारने का रूप प्रस्तुत करते है। कथा में गीत है किहनी कहनूत उक्खान और पहेलिया बहुतायत में है।
मूल कथा तो तकरीबन सभी स्थानों पर एक सी ही है। पर सुनते समय कथा को सुनाने से होनेवाले मनोरंजन का प्रभाव हमेशा ही अलग होता रहता है