दिन में है तपन
सूर्यदेव अग्नि परोसते है,
और हम सिर्फ बहाते पसीना।
न सम्मान
न स्वाभिमान
न ही संतुष्टि।
सब है मजदूर
एक से दूसरे
दूसरे से तीसरे के।
न तू भाई है, न बहन
न माता है न पिता
न मित्र है, बेटा भी नहीं
है सर्फ मजदूर।
असर है यह .....
दिन में तपन है।
रात-ठंडी-शीतल है क्या?
मृत पड़े है सब, नींद के आगोश में
है यहाँ माता! पिता! पुत्र! सखा! बहन! भाई।
सम्मान जागा - स्वाभिमान भी साथ है।
स्वयं भू हैं हम-अब अपने मालिक हैं।
न है डर।
भय भी नहीं है।
रात की गोद में
नींद के चादर में लिपटे
मीठे स्वप्न बाहों में भरे
दुनिया के मजदूरों की मजदूरी से बेखबर मस्त सो रहे है हम।
गुरुवार, 22 नवंबर 2018
संघर्ष
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