भारतीय रंगमंच का इतिहास केवल नाटकों और मंचीय प्रस्तुतियों की गाथा नहीं है, बल्कि उन अद्भुत अभिनेताओं की साधना का भी इतिहास है, जिन्होंने अभिनय को ‘अध्यात्म’ और ‘अनुसंधान’ का रूप दिया। उनमें से एक प्रमुख नाम है — मनोहर सिंह । उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) के सुविचारित प्रशिक्षण-संस्कार से लेकर रंगमंच की जीवंत परंपरा तक अभिनय को एक अनुशासन और जीवन-अनुभव में बदल दिया। उनकी अभिनय-दृष्टि, प्रशिक्षण-पद्धति और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया ने न केवल समकालीन रंगकर्म को दिशा दी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक जीवंत नज़ीर छोड़ी।
हिमाचल प्रदेश के क्वारा गाँव में जन्मे मनोहर सिंह का अभिनय-संस्कार आरंभ से ही लोकजीवन की सहजता से जुड़ा था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से उनका औपचारिक प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ — वही संस्थान जिसने भारतीय रंगमंच को अनेक दिग्गज कलाकार दिए। नाट्यविद्यालय में उन्होंने एब्राहिम अल्काज़ी जैसे अनुशासित निर्देशक-शिक्षक से सीखा कि अभिनय केवल “प्रदर्शन” नहीं, बल्कि “जीवंत अनुशासन” है।
एनएसडी से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमण्डल के संस्थापक सदस्यों में रहे और बाद में इसके प्रमुख बने। इस भूमिका में उन्होंने एक प्रशिक्षक, निर्देशक और कलाकार — तीनों की भूमिकाएँ एक साथ निभाईं। मनोहर सिंह का अभिनय-प्रशिक्षण न केवल तकनीक का अनुशासन था, बल्कि संवेदना की साधना भी। उनके अनुसार, “रंगमंच दो-तीन घंटे में जीवन के उतार-चढ़ाव से गुज़र जाने जैसा है, यह आपको भीतर तक जला देता है।”
यह कथन उनकी दृष्टि का सार है — वे अभिनय को जीवन के यथार्थ की तात्त्विक पुनर्रचना मानते थे।
उनकी प्रशिक्षण-पद्धति के तीन प्रमुख आयाम थे:
(क) अनुभव से अभिनय
मनोहर सिंह अपने विद्यार्थियों को यह सिखाते कि किसी पात्र को निभाने से पहले, उसे जीने का प्रयास करो। वे कहते थे कि कलाकार को पहले अपने अनुभव-संसार को विस्तार देना चाहिए — पढ़ना, देखना, लोगों से मिलना, समाज को समझना — ताकि मंच पर पात्र का अनुभव सच्चा लगे।
(ख) अनुशासन और शरीर-भाषा
एनएसडी में उन्होंने इब्राहिम अल्काज़ी से “अभिनय के अनुशासन” की परंपरा सीखी थी — जैसे कि वाणी-नियंत्रण, मंच-स्थिति, शरीर-संतुलन। वे यह मानते थे कि कलाकार का शरीर उसका सबसे बड़ा उपकरण है।
उनके प्रशिक्षण-सत्रों में यह देखा गया कि वे कलाकारों से लगातार ‘वॉर्म-अप’ और ‘बॉडी-रिद्म’ का अभ्यास करवाते, ताकि अभिनय में ऊर्जा और प्रवाह बना रहे।
(ग) संवेदना का आत्मानुभव
वे अभिनय को केवल बाह्य क्रिया नहीं मानते थे। उनके अनुसार, “जब तक आप पात्र की पीड़ा महसूस नहीं करते, तब तक मंच पर उसका रूप नहीं गढ़ सकते।” यही कारण था कि उन्होंने ‘तुगलक’ जैसे जटिल पात्र को भी भीतर से आत्मसात किया — एक ऐसी भूमिका जो सत्ता, पागलपन और आत्म-विनाश की सीमाओं को छूती है। मनोहर सिंह के अभिनय की विशिष्टता यह थी कि वे पात्र को केवल ‘निभाते’ नहीं थे, बल्कि ‘बनते’ थे। उनकी चरित्र-निर्माण प्रक्रिया चार स्तरों पर चलती थी।
अध्ययन — वे भूमिका के सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष का गहन अध्ययन करते।
आत्मसात — पात्र की भावनाओं को अपने भीतर जगह देते।
प्रयोग — मंच पर अलग-अलग रूपों में पात्र को गढ़ते, संवादों और मुद्राओं के साथ प्रयोग करते।
प्रस्तुति — दर्शक की प्रतिक्रिया के अनुसार भूमिका को पुनः आकार देते।
उनका यह दृष्टिकोण “Stanislavski System” की तरह “अंदर से अभिनय” (Method Acting) के निकट था, परन्तु भारतीय संवेदना से जुड़ा हुआ। वे कहा करते थे कि “हमारा थिएटर भारत के मनोविज्ञान से जन्म लेता है, उसे पश्चिमी ढाँचे में बाँधना उचित नहीं।”
“अलकाज़ी के अनुसार, ‘मनोहर के अंदर आत्मा की उच्चता, आत्म-निष्ठा और पूरी निष्ठा थी’।
मनोहर सिंह केवल अभिनेता नहीं थे, वे एक सधे हुए प्रशिक्षक भी थे। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमण्डल में युवा कलाकारों को प्रशिक्षण दिया — जिनमें आगे चलकर कई प्रसिद्ध अभिनेता बने। वे अभिनय को “शिल्प और साधना” दोनों मानते थे।
उनकी कार्यशालाओं में दो बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य थीं: मौन का अभ्यास — वे कहा करते, “अभिनय का अर्थ बोलना नहीं, मौन में भी संवाद करना है।” समूह-संवेदना — वे अभिनय को सामूहिक रचना मानते थे। उनके प्रशिक्षण में कलाकारों को एक-दूसरे की ऊर्जा के प्रति सजग रहना सिखाया जाता था।
भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ में आप अतिथि प्रशिक्षक, सोसाइटी सदस्य, पाठ्यक्रम समिति आदि में जीवंत और सजग उपस्थिति होती थी यहाँ उनके रंग-संस्कार की छाप देखी जा सकती है। यहाँ की अभिनय-पद्धति में “चरित्र-अन्वेषण” और “अनुभव-संपृक्ति” के जो तत्व हैं, वे मनोहर सिंह की परंपरा से ही प्रेरित हैं।
नाट्य-कृतियाँ और प्रयोगशील दृष्टि
मनोहर सिंह की रंग-यात्रा में अनेक नाट्य-कृतियाँ मील का पत्थर रहीं —‘तुगलक’ (गिरीश कर्नाड) में उनका अभिनय एक मानक माना गया; ‘आधे-अधूरे’ (मोहन राकेश) में उनके पात्र की मनोवैज्ञानिक जटिलता दर्शकों को भीतर तक छू गई; ‘बेगम बारवे’ और ‘हिम्मत माई’ में उन्होंने लिंग-परिवर्तनशील अभिनय की अनोखी मिसाल पेश की; ‘हिम्मत माई’ जिन दर्शकों ने देखा है वह स्मृति के अमिट पटल पर उकेर दिया गया है जो कभी धूमिल नहीं होगा।
उनकी यह क्षमता कि वे पुरुष और स्त्री दोनों के भाव-संवेद को समान गहराई से पकड़ लें — उनके प्रशिक्षण का परिणाम थी। यह केवल अभिनय नहीं, बल्कि भाव-अभ्यास था — अपने भीतर मौजूद स्त्री-पुरुष, भय-साहस, प्रेम-क्रोध के युग्म को संतुलित करना।
थिएटर से टेलीविज़न और सिनेमा तक
मनोहर सिंह ने बाद में टेलीविज़न और सिनेमा की दुनिया में भी कदम रखा — ‘कथा’, ‘मम्मो’, ‘दामुल’, ‘तामस’ जैसी फिल्मों में उनकी उपस्थिति स्मरणीय रही। परंतु वे मंच को कभी नहीं भूले। उन्होंने कहा था, “रंगमंच मेरा घर है, बाकी सब यात्राएँ हैं।” यह कथन उनके पूरे जीवन-दर्शन का सार है — अभिनय उनके लिए जीविका नहीं, साधना थी।
मनोहर सिंह का रंगदर्शन गहराई में मानव-मनोविज्ञान से जुड़ता है। वे मानते थे कि हर पात्र के भीतर एक मनुष्य छिपा है — उसका दर्द, उसकी कामना, उसका द्वंद्व। अभिनेता का काम है उस मनुष्य को खोज निकालना।
उनकी प्रशिक्षण-दृष्टि में इसलिए मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एक केंद्रीय तत्व था। वे छात्रों से कहते — “संवाद रटने से पहले यह जानो कि पात्र यह क्यों कह रहा है।” उनका यह दृष्टिकोण आज के आधुनिक रंगशिक्षण में भी प्रासंगिक है — जहाँ अभिनय को केवल तकनीक नहीं, बल्कि ‘भाव-अनुसंधान’ के रूप में देखा जाता है। मनोहर सिंह को 1982 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उनके योगदान की स्मृति में ‘मनोहर सिंह स्मृति पुरस्कार’ की स्थापना की। यह केवल एक सम्मान नहीं, बल्कि उस जीवंत परंपरा की स्वीकृति है जिसमें वे थिएटर को आत्म-अनुशासन और आंतरिक खोज का माध्यम मानते थे।
आज जब अभिनय-शिक्षा में तेज़ी से व्यावसायिक दृष्टिकोण (कैमरा अभिनय) बढ़ा है, मनोहर सिंह की पद्धति हमें यह याद दिलाती है कि अभिनय केवल कैमरा-फ्रेम नहीं, मानवीय अनुभव का विस्तार है।
उनका प्रशिक्षण मॉडल — आत्म-संवेदना, अनुशासन, सामाजिक दृष्टि और निरंतर अभ्यास पर आधारित था। यही चार स्तंभ आज भी किसी भी रंगमंचीय-संस्थान के लिए दिशा-सूचक हैं।
भारतीय रंगमंच में मनोहर सिंह का योगदान इस अर्थ में अद्वितीय है कि उन्होंने अभिनय करने को भारत में चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया बना दिया — जहाँ अभिनेता स्वयं अपने भीतर के अंधकार और प्रकाश दोनों से परिचित होता है। मनोहर सिंह भारतीय रंगमंच के उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने अभिनय को एक ‘साधना-प्रक्रिया’ के रूप में देखा। उनकी प्रशिक्षण-पद्धति ने रंगकर्म को जीवन-अनुभव, अनुशासन और संवेदना के संगम में बदला। और भारतेन्दु नाट्य अकादमी की प्रयोगात्मक भूमि पर खड़े होकर उन्होंने अभिनय को विचार, अध्ययन और भावनात्मक ईमानदारी से जोड़ा। उनकी विरासत यह सिखाती है कि एक सच्चा अभिनेता केवल मंच पर नहीं बनता, बल्कि जीवन के हर अनुभव में अभिनय सीखता है — और यही मनोहर सिंह की अभिनय-दृष्टि का शाश्वत संदेश है।
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