बुधवार, 5 नवंबर 2025

ऊषा गांगुली : भारतीय रंगमंच की मर्मज्ञ साधिका

ऊषा गांगुली : भारतीय रंगमंच की मर्मज्ञ साधिका

ऊषा गांगुली : हिंदी रंगमंच की नारी दृष्टि और यथार्थ का आत्मसंघर्ष

भारतीय रंगमंच के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो न केवल अपनी प्रतिभा से, बल्कि अपनी वैचारिक दृष्टि और सामाजिक प्रतिबद्धता से भी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऊषा गांगुली उन्हीं विशिष्ट व्यक्तित्वों में से एक थीं। वे एक ऐसी नाट्यकर्मी थीं जिन्होंने हिंदी रंगमंच को बंगाल की धरती पर प्रतिष्ठित किया, और सामाजिक यथार्थ को मंच पर जीवंत कर दिखाया। अभिनेत्री, निर्देशक, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता — ऊषा गांगुली का जीवन रंगमंच की निरंतर साधना का पर्याय था।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

ऊषा गांगुली का जन्म 20 जनवरी 1945 को कोलकाता में हुआ था। साहित्य और नाट्यकला के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही थी, किंतु उस समय किसी को यह आभास भी नहीं था कि वे एक दिन भारतीय रंगमंच की दिशा ही बदल देंगी। शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने अध्यापन को अपने पेशे के रूप में चुना। अध्यापन के साथ-साथ वे रंगमंच से भी जुड़ी रहीं, और यही जुड़ाव धीरे-धीरे उनके जीवन का केंद्र बन गया।

सत्तर के दशक में ऊषा गांगुली ने रंगमंच की दुनिया में कदम रखा। प्रारंभिक दौर में उन्होंने विभिन्न बंगाली नाट्य संस्थाओं के साथ काम किया, परंतु शीघ्र ही उन्हें यह महसूस हुआ कि हिंदी रंगमंच के लिए बंगाल में पर्याप्त मंच नहीं हैं। इसी सोच ने उन्हें 1976 में अपनी नाट्य संस्था ‘रंगकर्मी’ की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया। ‘रंगकर्मी’ ने धीरे-धीरे कोलकाता के रंगमंच पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। इस संस्था ने हिंदी नाट्य परंपरा को बंगाली दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया और हिंदी रंगमंच को पूर्वी भारत में नई ऊर्जा प्रदान की।

ऊषा गांगुली का निर्देशन सदैव सामाजिक सरोकारों से जुड़ा रहा। वे रंगमंच को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का औजार मानती थीं। उनके नाटकों में स्त्री की स्थिति, वर्गभेद, हिंसा, शोषण और मानवीय संवेदनाओं के विविध आयाम देखने को मिलते हैं। उन्होंने अपने कार्य से यह सिद्ध किया कि रंगमंच समाज का आईना ही नहीं, बल्कि परिवर्तन का औजार भी है। परंतु उनके रंगमंच का महत्त्व केवल सामाजिक यथार्थ की प्रस्तुति तक सीमित नहीं था — उसमें स्त्री की चेतना, वर्ग-संघर्ष की जटिलता और रंगमंच की सौंदर्य-दृष्टि, तीनों का समागम हुआ।

“महाभोज” – मन्नू भंडारी के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित यह नाटक ऊषा गांगुली के निर्देशन में एक सशक्त राजनीतिक वक्तव्य बन गया। इसमें सत्ता, भ्रष्टाचार और जनसंघर्ष के तीखे चित्रण ने दर्शकों को झकझोर दिया। “रूदाली” – महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित इस नाटक में ऊषा गांगुली ने समाज में स्त्री की त्रासदी को करुण यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया। यह नाटक उनकी पहचान का प्रतीक बना और भारत के साथ विदेशों में भी खूब सराहा गया। “होली” – महेश एलकुंचवार के नाटक का यह मंचन मनोवैज्ञानिक गहराई और सांस्कृतिक प्रतीकों से भरा हुआ था। “कोर्ट मार्शल”, “लोककथा”, “अंतिगोनी”, “हजार चौरासी की माँ”, और “काशीनामा” जैसे नाटकों में भी उनकी सामाजिक दृष्टि और सौंदर्यबोध स्पष्ट रूप से झलकता है।
ऊषा गांगुली के निर्देशन में नाट्य की दृश्य संरचना अत्यंत सटीक होती थी। उनके मंचन में प्रतीकों और प्रकाश के प्रयोग से गहन भावनात्मक वातावरण निर्मित होता था। वे संवादों की बजाय दृश्य-भाषा के माध्यम से संवेदनाओं को अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती थीं। यहाँ उनकी दृष्टि केवल नाट्य पुनरावृत्ति की नहीं, बल्कि पुनर्संरचना की थी। उन्होंने साहित्यिक कृतियों को मंचीय भाषा में रूपांतरित करते समय दृश्य-यथार्थ को प्रतीकात्मक संरचना में ढाला — जिससे सामाजिक पीड़ा न केवल कहानी का विषय रही, बल्कि मंच की देहभाषा बन गई। 

एक अभिनेत्री के रूप में ऊषा गांगुली ने भारतीय रंगमंच को कई यादगार भूमिकाएँ दीं। वे स्वयं भी अपने नाटकों में अभिनय करती थीं। “रूदाली” में संनिचरी की भूमिका में उनका अभिनय आज भी भारतीय रंगमंच के इतिहास में अमर है। उनकी अभिनय शैली में गहरी अंतर्दृष्टि, नियंत्रित भावाभिव्यक्ति और मानवीय पीड़ा का सजीव चित्रण देखने को मिलता था।

ऊषा गांगुली का रंगमंच केवल कलात्मक प्रयोगों तक सीमित नहीं था। वे स्त्री अधिकारों और सामाजिक न्याय के प्रश्नों को केंद्र में रखती थीं। उनके नाटकों में नारी अपने अस्तित्व की तलाश करती दिखाई देती है। “रूदाली”, “महाभोज” और “काशीनामा” जैसी प्रस्तुतियाँ स्त्री की संवेदनशीलता, संघर्ष और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गईं। इसके अतिरिक्त वे झुग्गी-बस्तियों के बच्चों के लिए नाट्य कार्यशालाएँ भी आयोजित करती थीं और समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को रंगमंच के माध्यम से अभिव्यक्ति का अवसर देती थीं। ऊषा गांगुली का रंगमंच शुद्ध यथार्थवादी नहीं था। वे मंच को केवल घटनाओं का प्रस्तुतीकरण नहीं मानती थीं, बल्कि उसे “भाव-संरचना” (emotional architecture) के रूप में देखती थीं। उनके निर्देशन में दृश्य-प्रतीक, प्रकाश, वेशभूषा और संगीत — सभी संवाद का हिस्सा बन जाते थे।

ऊषा गांगुली का रंगकर्मी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चित रहा। उनके नाटकों का मंचन यू.के., पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में हुआ। हिंदी रंगमंच को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठा दिलाने में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। भारत सरकार ने उन्हें 1990 में ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें पश्चिम बंगाल राज्य अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री (2015) और अनेक अन्य सम्मानों से भी नवाजा गया।

प्रशिक्षिका के रूप में ऊषा गांगुली ने सैकड़ों विद्यार्थियों को नाट्यकला का प्रशिक्षण दिया। वे मानती थीं कि रंगमंच केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि शिक्षा और चेतना का माध्यम है। उनके निर्देशन में नाटक पढ़ना, लिखना और प्रस्तुत करना एक संवाद की प्रक्रिया बन जाता था। उनकी शिक्षण पद्धति में अनुशासन, संवेदना और सामाजिक दृष्टि तीनों का सुंदर संतुलन दिखाई देता था।

ऊषा गांगुली का जीवन अंतिम दिनों तक सक्रिय रहा। वे वृद्धावस्था में भी रंगकर्मी संस्था से जुड़ी रहीं और युवा कलाकारों का मार्गदर्शन करती रहीं। 23 अप्रैल 2020 को हृदयाघात से उनका निधन हुआ। उनकी संस्था ‘रंगकर्मी’ आज भी उनके विचारों और रंगदृष्टि को आगे बढ़ा रही है। 
ऊषा गांगुली का रंगमंच न तो केवल स्त्री विमर्श था, न केवल राजनीतिक प्रतिरोध — वह जीवन के सम्पूर्ण यथार्थ का एक आत्मसंघर्ष था। उनके रंगकर्म में करुणा और क्रांति दोनों साथ चलते हैं। वे मंच पर केवल कहानियाँ नहीं कहती थीं; वे समाज के मौन को स्वर देती थीं। ऊषा गांगुली ने भारतीय रंगमंच को भाव और विचार के संतुलन की नयी भाषा दी। उनके नाटकों ने दर्शकों को केवल रुलाया नहीं, उन्हें सोचने पर मजबूर किया। यही किसी भी सच्चे रंगकर्मी की पहचान है — और इसी अर्थ में ऊषा गांगुली भारतीय रंगमंच की एक युग-निर्माता शख्सियत हैं।

ऊषा गांगुली का नाम भारतीय रंगमंच के इतिहास में एक ऐसी शख्सियत के रूप में दर्ज है जिन्होंने भाषा, संस्कृति और समाज के बीच की दीवारें तोड़ीं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कला तभी सार्थक है जब वह समाज की धड़कनों से जुड़ी हो। वे न केवल रंगकर्मी थीं, बल्कि एक आंदोलन थीं — एक ऐसी स्त्री जिन्होंने मंच को अपने विचारों की आवाज़ बनाया और रंगमंच को लोक और जीवन के निकट ले आईं। उनकी नाट्ययात्रा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनी रहेगी — एक ऐसी यात्रा जिसमें कला और सामाजिक चेतना एक-दूसरे के पूरक हैं।

डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल : हिन्दी नाट्य-साहित्य के नवोन्मेषी शिल्पी

डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाल : हिन्दी नाट्य-साहित्य के नवोन्मेषी शिल्पी

— लेखन : [मनोज कुमार मिश्रा]

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल हिन्दी नाट्य-जगत के उन विरल सृजनकारों में हैं जिन्होंने रंगमंच, आलोचना और कथा-साहित्य — तीनों को एक साथ नई दिशा दी। वे केवल लेखक नहीं, बल्कि विचारक, रंगकर्मी और शिक्षक भी थे। उनके नाटकों में भारतीय समाज की धड़कन, व्यक्ति-मन की जटिलता और युग-परिवर्तन की बेचैनी एक साथ दिखाई देती है।

जीवन और शिक्षा

डा॰ लाल का जन्म 4 मार्च 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के जलालपुर गाँव में हुआ। ग्रामीण जीवन ने उनके भीतर लोक-संवेदना और वास्तविकता के प्रति गहरी दृष्टि विकसित की। उन्होंने हिन्दी साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त की और “हिन्दी कहानियों के शिल्प-विधि का विकास” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित की। उनका अकादमिक जीवन अध्यापन और शोध दोनों में सक्रिय रहा। वे अनेक विश्वविद्यालयों और सांस्कृतिक संस्थानों से जुड़े रहे, जहाँ उन्होंने नाट्य-शिक्षा और रंग-साहित्य को व्यावहारिक रूप से बढ़ावा दिया।

रचनात्मक यात्रा

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल की साहित्यिक यात्रा अत्यंत व्यापक रही। उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी और आलोचना — सभी विधाओं में लेखन किया, किंतु उनकी ख्याति सर्वाधिक एक नाटककार के रूप में हुई। उनके लेखन में सामाजिक यथार्थ, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और प्रतीकात्मकता का अद्भुत संयोजन मिलता है।

उनका पहला उल्लेखनीय नाटक ‘अँधा कुआँ’ (1956) हिन्दी नाट्य-जगत में एक नई धारा लेकर आया। इसके बाद ‘मादा कैक्टस’ (1959), ‘मिस्टर अभिमन्यु’ (1971) और ‘दूसरा दरवाज़ा’ (1972) जैसे नाटकों ने उनके रचनात्मक कौशल की पहचान बनाई। इन नाटकों में समाज के भीतर फैले अन्याय, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की संघर्षशीलता और आत्म-संघर्ष की गहरी पड़ताल की गई है।

विषय और दृष्टि

डा॰ लाल के नाटक मानव-जीवन की गहराइयों में उतरते हैं। उनके पात्र अपने परिवेश से जूझते हुए अस्मिता की खोज में निकलते हैं। वे सत्ता-संरचना, नैतिक पतन, स्त्री-स्वातंत्र्य और वर्गीय असमानता जैसे विषयों को मंच पर लाने का साहस करते हैं। उनका नाट्य-दर्शन इस विचार पर आधारित है कि रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज के आत्म-मंथन का माध्यम है।

उनकी रचनाओं में ‘नेपथ्य’ का उपयोग अत्यंत प्रतीकात्मक रूप में होता है। नेपथ्य उनके लिए केवल पर्दे के पीछे का हिस्सा नहीं, बल्कि मनुष्य के अवचेतन का वह क्षेत्र है जहाँ अनकहे भाव और अदृश्य घटनाएँ आकार लेती हैं। उनके नाटकों का स्वप्न-संरचना-प्रधान शिल्प उन्हें आधुनिक और मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से विशेष बनाता है।

कथा और उपन्यास

नाटकों के अतिरिक्त डा॰ लाल ने कथा-साहित्य में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनका उपन्यास ‘धरती की आँखें’ (1951) ग्रामीण जीवन और सामाजिक संघर्ष का सजीव दस्तावेज़ है। ‘बया का घोंसला’ में उन्होंने स्त्री-जीवन की कोमलता और संघर्ष को करुण संवेदना से चित्रित किया। उनकी कहानियाँ आम आदमी की जिजीविषा और नैतिक द्वंद्व को अभिव्यक्त करती हैं। वे पात्रों के भीतर चलने वाले विचार-संघर्ष को इतनी बारीकी से पकड़ते हैं कि पाठक स्वयं उस अनुभव का सहभागी बन जाता है।

भाषा और शिल्प

डा॰ लाल की भाषा सहज, स्वाभाविक और संवाद-प्रधान है। वे लोक-शब्दों, मिथकीय प्रतीकों और आधुनिक संवेदनाओं का ऐसा संतुलन रचते हैं कि नाटक केवल कथानक नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव बन जाते हैं। ‘मिस्टर अभिमन्यु’ में उन्होंने महाभारत के मिथक को आधुनिक मनुष्य के संघर्ष से जोड़कर एक नवीन प्रतीक-रचना प्रस्तुत की। उनके संवादों में लय, ताजगी और विचार की तीक्ष्णता साथ-साथ चलती है।

नाट्य-चिन्तन और आलोचना

डा॰ लाल ने केवल सृजन ही नहीं किया, बल्कि नाट्य-साहित्य पर गंभीर विचार भी किए। उनकी समीक्षात्मक कृतियाँ — ‘पारसी हिन्दी रंगमंच’, ‘रंगमंच और उसकी भूमिका’ तथा ‘हिन्दी कहानियों के शिल्प-विधि का विकास’ — हिन्दी नाट्य-विचार के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती हैं। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य नाट्य-परंपराओं के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से यह दिखाया कि हिन्दी रंगमंच अपने लोक-तत्वों और आधुनिक संवेदनाओं से नई दिशा पा सकता है।

समाज और मानवीय दृष्टिकोण

डा॰ लाल का साहित्य समाज की गहराइयों को छूता है। वे मनुष्य के संघर्ष को किसी एक वर्ग या काल से नहीं बाँधते, बल्कि उसे सार्वभौमिक अनुभव के रूप में देखते हैं। उनके पात्र किसान, मजदूर, स्त्री या शिक्षक — सभी अपने समय की चुनौतियों से मुठभेड़ करते हुए आत्म-पहचान की खोज में लगे रहते हैं। उन्होंने दिखाया कि समाज में परिवर्तन केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक भी होना चाहिए। यही दृष्टि उन्हें यथार्थवादी लेखकों से अलग बनाती है।

रंगमंच से जुड़ाव

डा॰ लाल का जीवन रंगमंच से गहराई से जुड़ा रहा। वे स्वयं नाट्य-निर्देशन करते थे और नए कलाकारों को प्रशिक्षित करते थे। उनके नाटक ‘दूसरा दरवाज़ा’ को दिल्ली के रंग-समूहों ने अनेक बार मंचित किया। उनकी लेखनी में रंग-अनुभव की गंध है — यह विशेषता केवल उस लेखक में संभव है जिसने मंच की धड़कन को बहुत पास से महसूस किया हो।

व्यक्तित्व और मूल्य

डा॰ लाल विनम्र, गंभीर और चिंतनशील व्यक्ति थे। वे संवाद में संयमित किंतु विचारों में अत्यंत मौलिक थे। साहित्य उनके लिए केवल पेशा नहीं, जीवन-धर्म था। वे विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा-स्रोत और सहकर्मियों के लिए सृजनशील साथी थे। उनके जीवन में अध्ययन, अध्यापन और सृजन — तीनों का सुंदर संगम दिखाई देता है।

पुरस्कार और मान्यता

उनकी रचनात्मकता और नाट्य-सेवा को देखते हुए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए। उनके नाटक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल किए गए और आज भी रंगकर्मियों द्वारा मंचित किए जाते हैं।

विरासत और प्रासंगिकता

20 नवम्बर 1987 को दिल्ली में उनके निधन के साथ हिन्दी नाट्य-साहित्य का एक उज्ज्वल अध्याय समाप्त हुआ, परन्तु उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं। समाज, व्यक्ति और मूल्य-संघर्ष के प्रश्न आज भी वही हैं जिन्हें उन्होंने अपने नाटकों में उठाया था।

डा॰ लक्ष्मी नारायण लाल की विरासत केवल उनकी रचनाओं में नहीं, बल्कि उनके दृष्टिकोण में है — वह दृष्टि जो रंगमंच को जीवन का दर्पण मानती है। वे हमें सिखाते हैं कि साहित्य तभी सार्थक है जब वह मनुष्य के भीतर छिपे नेपथ्य को उजागर कर सके। उनके नाटक आज भी हिन्दी रंगमंच को दिशा देते हैं और आने वाली पीढ़ियों को सृजन के प्रति सजग बनाते हैं।

(लेखक हिन्दी नाट्य-साहित्य और भारतीय रंगमंच के अध्येता हैं।)

“पण्डित उगम राज और कुचामणी ख्याल की लोक-नाट्य परंपरा”

एक दूसरे के पूरक हैं “पण्डित उगम राज और कुचामणी ख्याल”

राजस्थान की मिट्टी अपने भीतर ऐसी लोक-सांस्कृतिक चेतना संजोए हुए है, जिसमें संगीत, नृत्य, नाट्य और अध्यात्म का अद्भुत संगम दिखाई देता है। इसी भूमि ने अनेक लोक कलाकारों को जन्म दिया जिन्होंने परंपरा और रचनाशीलता के सेतु बनकर समाज को कला के माध्यम से एक नई दृष्टि दी। इन्हीं में एक विशिष्ट नाम है — पण्डित उगम राज, जिनका जीवन और सृजन “कुचामणी ख्याल” के संरक्षण और संवर्धन के लिए समर्पित रहा।

कुचामणी ख्याल की उत्पत्ति और स्वरूप

कुचामण (जिला नागौर, राजस्थान) से उत्पन्न यह लोक-नाट्य परंपरा लगभग तीन सौ वर्षों से अधिक पुरानी मानी जाती है। यह एक संगीतात्मक नाटक शैली है जिसमें गान, वादन, अभिनय और संवाद की समान भागीदारी होती है। इसका आधार लोकभाषा, लोकसंगीत और लोककथाओं से निर्मित है।
इस नाट्य शैली में पुरुष कलाकार ही स्त्री भूमिकाएँ निभाते हैं, और प्रस्तुतियों में सामाजिक, धार्मिक या ऐतिहासिक कथाओं को व्यंग्य, हास्य और भावनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से जनसामान्य के समक्ष लाया जाता है।
यह शैली एक प्रकार से राजस्थान का “लोक-ऑपेरा” कही जा सकती है, जिसमें ढोल, नगाड़ा, हारमोनियम, शहनाई और तबले की ध्वनियाँ रंगमंचीय वातावरण रचती हैं।

पण्डित उगम राज का जीवन और कलायात्रा

पण्डित उगम राज (1926–2007) का जन्म नागौर जिले के कुचामण क्षेत्र में हुआ। बचपन से ही उनके भीतर संगीत और नाटक के प्रति विशेष अनुराग था। स्थानीय मेलों और जगरों में प्रदर्शन देखने के बाद उन्होंने “ख्याल” की विधा को जीवन का ध्येय बना लिया।
उनकी साधना केवल अभिनय तक सीमित नहीं रही; उन्होंने ख्याल की संगीत रचना, संवाद-लेखन, निर्देशन और प्रशिक्षण सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया। वे “उगम राज खिलाड़ी” के नाम से प्रसिद्ध हुए — यहाँ ‘खिलाड़ी’ शब्द का अर्थ मात्र कलाकार नहीं बल्कि उस लोक-रचनाकार से है जो मंच पर जीवन का सम्पूर्ण अभिनय कर सके।

पण्डित जी ने कुचामणी ख्याल के अनेक नाटकों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाईं — “गोपीचंद-भर्तृहरि”, “प्रह्लाद चरित”, “राणा प्रताप”, “धोला-मारू” जैसे नाट्य प्रकरण उनके प्रस्तुतियों के केंद्र में रहे। वे न केवल अभिनय के शिल्पी थे, बल्कि संवाद की लयात्मकता और गायन की भावाभिव्यक्ति को मिलाने की कला में भी निपुण थे।

ख्याल के संगीत का पुनरुद्धार

कुचामणी ख्याल के संगीत पक्ष को उगम राज ने नया जीवन दिया। उन्होंने लोक रागों — विशेषकर मांड, सोरठ, देश और बिलावल — का प्रयोग नाट्य गीतों में किया, जिससे यह शैली और भी आकर्षक बनी।
उनकी प्रस्तुतियों में न केवल मनोरंजन था, बल्कि एक गहरी संवेदनशीलता भी थी। संवादों के बीच गीतों की प्रविष्टि इस तरह होती थी कि दर्शक कथा के भाव-जगत से बाहर न जाए। यही उनकी अभिनय-कला की मौलिकता थी।

लोक और समाज के बीच सेतु

पण्डित उगम राज ने कला को लोक-जीवन से जोड़ा। वे मानते थे कि नाट्य का उद्देश्य केवल रंगमंचीय प्रदर्शन नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद है। उनकी प्रस्तुतियों में समकालीन समस्याएँ – जैसे स्त्री-सम्मान, लोभ, अन्याय, धर्म की विकृति और समाज की नैतिकता – को लोकभाषा की सहज शैली में प्रस्तुत किया जाता था।
उनके नाटकों में दर्शक केवल दर्शक नहीं, बल्कि सहभागी बन जाता था। यही कारण था कि गाँवों और कस्बों में जब “उगम राज की टोली” का प्रदर्शन होता, तो पूरा समाज उसमें सम्मिलित हो जाता।

प्रशिक्षण और संरक्षण कार्य

जीवन के उत्तरार्ध में पण्डित उगम राज ने “उगम राज खिलाड़ी लोक कला प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान” की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था लोक कलाकारों को प्रशिक्षण देना और इस dying art form को पुनर्जीवित करना।
उन्होंने युवा पीढ़ी को न केवल अभिनय सिखाया, बल्कि लोकसंगीत और पारंपरिक संवादों की संवेदनशीलता भी समझाई। इस संस्था के माध्यम से अनेक कलाकार आगे आए जिन्होंने बाद में दूरदर्शन, आकाशवाणी और सांस्कृतिक मंचों पर कुचामणी ख्याल का नाम पुनर्जीवित किया।

राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मान्यता

पण्डित जी को उनके योगदान के लिए विभिन्न सांस्कृतिक संस्थानों ने सम्मानित किया। राजस्थान साहित्य अकादमी, लोक कला मंडल, तथा संगीत नाटक अकादमी जैसे संस्थानों ने समय-समय पर उनकी प्रस्तुतियों को प्रोत्साहन दिया।
उनकी टोली ने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, दिल्ली और मुंबई तक में प्रदर्शन किए। वे इस परंपरा को केवल ग्रामीण संस्कृति तक सीमित न रखकर राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने वाले पहले कलाकारों में गिने जाते हैं।

कला की विशेषताएँ और अभिनय-दर्शन

उगम राज के अभिनय में एक गूढ़ मनोवैज्ञानिक संवेदना दिखाई देती थी। उनके अनुसार, “ख्याल” केवल नाट्य नहीं, जीवन का विस्तार है। वे संवादों में नाटकीयता नहीं, बल्कि अनुभूति की गहराई लाने पर बल देते थे।
उनके अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता थी – आवाज़ का प्रयोग और अभिव्यक्ति का संतुलन। वे पात्र की मनःस्थिति को आवाज़ की लय, गति और ठहराव से जीवंत कर देते थे।
उनकी मंचीय उपस्थिति में लोकभाषा का सौंदर्य, भावों की सरलता और हास्य का सूक्ष्म प्रयोग सम्मिलित रहता था।

परंपरा का उत्तराधिकार

पण्डित उगम राज के शिष्यों ने उनके मार्गदर्शन में इस कला को आगे बढ़ाया। उनके कुछ प्रमुख शिष्य आज भी राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के सांस्कृतिक मंचों पर कुचामणी ख्याल की प्रस्तुतियाँ करते हैं।
उनकी कला से प्रभावित नई पीढ़ी अब पारंपरिक विषयों के साथ-साथ आधुनिक सामाजिक विषयों पर भी ख्याल प्रस्तुत कर रही है। इस प्रकार पण्डित उगम राज का कार्य एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले चुका है।

अंतिम चरण और विरासत

2007 में पण्डित उगम राज का निधन हुआ, पर उनकी कला अब भी जीवित है। उनके रिकॉर्ड किए गए गीत, संवाद और नाटक आज लोककला के इतिहास का अमूल्य दस्तावेज हैं।
उनकी विरासत यह सिखाती है कि लोककला केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामूहिक स्मृति का संवाहक है। उन्होंने दिखाया कि परंपरा आधुनिकता की विरोधी नहीं, बल्कि उसकी जड़ है।

पण्डित उगम राज का जीवन हमें यह सिखाता है कि यदि कलाकार अपनी जड़ों से जुड़ा रहे, तो उसकी कला कभी मर नहीं सकती। उन्होंने जिस कुचामणी ख्याल को समाज की धड़कनों में पुनः जीवित किया, वह आज भी राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग है।
उनकी साधना, समर्पण और सृजनशीलता यह प्रमाणित करती है कि लोक-नाट्य केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि जीवित संस्कृति का दर्पण है। पण्डित उगम राज जैसे कलाकार ही वह सेतु हैं जो लोक और शास्त्र, परंपरा और आधुनिकता, और दर्शक तथा कलाकार के बीच संवेदनाओं का प्रवाह बनाए रखते हैं।

मनोहर सिंह: अभिनय-प्रशिक्षण की दृष्टि, चरित्र-निर्माण की पद्धति और रंग-संस्कार की परंपरा

भारतीय रंगमंच का इतिहास केवल नाटकों और मंचीय प्रस्तुतियों की गाथा नहीं है, बल्कि उन अद्भुत अभिनेताओं की साधना का भी इतिहास है, जिन्होंने अभिनय को ‘अध्यात्म’ और ‘अनुसंधान’ का रूप दिया। उनमें से एक प्रमुख नाम है — मनोहर सिंह । उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) के सुविचारित प्रशिक्षण-संस्कार से लेकर रंगमंच की जीवंत परंपरा तक अभिनय को एक अनुशासन और जीवन-अनुभव में बदल दिया। उनकी अभिनय-दृष्टि, प्रशिक्षण-पद्धति और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया ने न केवल समकालीन रंगकर्म को दिशा दी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक जीवंत नज़ीर छोड़ी।
हिमाचल प्रदेश के क्वारा गाँव में जन्मे मनोहर सिंह का अभिनय-संस्कार आरंभ से ही लोकजीवन की सहजता से जुड़ा था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से उनका औपचारिक प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ — वही संस्थान जिसने भारतीय रंगमंच को अनेक दिग्गज कलाकार दिए। नाट्यविद्यालय में उन्होंने एब्राहिम अल्काज़ी जैसे अनुशासित निर्देशक-शिक्षक से सीखा कि अभिनय केवल “प्रदर्शन” नहीं, बल्कि “जीवंत अनुशासन” है।
एनएसडी से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमण्डल के संस्थापक सदस्यों में रहे और बाद में इसके प्रमुख बने। इस भूमिका में उन्होंने एक प्रशिक्षक, निर्देशक और कलाकार — तीनों की भूमिकाएँ एक साथ निभाईं। मनोहर सिंह का अभिनय-प्रशिक्षण न केवल तकनीक का अनुशासन था, बल्कि संवेदना की साधना भी। उनके अनुसार, “रंगमंच दो-तीन घंटे में जीवन के उतार-चढ़ाव से गुज़र जाने जैसा है, यह आपको भीतर तक जला देता है।”
यह कथन उनकी दृष्टि का सार है — वे अभिनय को जीवन के यथार्थ की तात्त्विक पुनर्रचना मानते थे।

उनकी प्रशिक्षण-पद्धति के तीन प्रमुख आयाम थे:
(क) अनुभव से अभिनय

मनोहर सिंह अपने विद्यार्थियों को यह सिखाते कि किसी पात्र को निभाने से पहले, उसे जीने का प्रयास करो। वे कहते थे कि कलाकार को पहले अपने अनुभव-संसार को विस्तार देना चाहिए — पढ़ना, देखना, लोगों से मिलना, समाज को समझना — ताकि मंच पर पात्र का अनुभव सच्चा लगे।

(ख) अनुशासन और शरीर-भाषा
एनएसडी में उन्होंने इब्राहिम अल्काज़ी से “अभिनय के अनुशासन” की परंपरा सीखी थी — जैसे कि वाणी-नियंत्रण, मंच-स्थिति, शरीर-संतुलन। वे यह मानते थे कि कलाकार का शरीर उसका सबसे बड़ा उपकरण है।
उनके प्रशिक्षण-सत्रों में यह देखा गया कि वे कलाकारों से लगातार ‘वॉर्म-अप’ और ‘बॉडी-रिद्म’ का अभ्यास करवाते, ताकि अभिनय में ऊर्जा और प्रवाह बना रहे।

(ग) संवेदना का आत्मानुभव
वे अभिनय को केवल बाह्य क्रिया नहीं मानते थे। उनके अनुसार, “जब तक आप पात्र की पीड़ा महसूस नहीं करते, तब तक मंच पर उसका रूप नहीं गढ़ सकते।” यही कारण था कि उन्होंने ‘तुगलक’ जैसे जटिल पात्र को भी भीतर से आत्मसात किया — एक ऐसी भूमिका जो सत्ता, पागलपन और आत्म-विनाश की सीमाओं को छूती है। मनोहर सिंह के अभिनय की विशिष्टता यह थी कि वे पात्र को केवल ‘निभाते’ नहीं थे, बल्कि ‘बनते’ थे। उनकी चरित्र-निर्माण प्रक्रिया चार स्तरों पर चलती थी।
अध्ययन — वे भूमिका के सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष का गहन अध्ययन करते।
आत्मसात — पात्र की भावनाओं को अपने भीतर जगह देते।
प्रयोग — मंच पर अलग-अलग रूपों में पात्र को गढ़ते, संवादों और मुद्राओं के साथ प्रयोग करते।
प्रस्तुति — दर्शक की प्रतिक्रिया के अनुसार भूमिका को पुनः आकार देते।

उनका यह दृष्टिकोण “Stanislavski System” की तरह “अंदर से अभिनय” (Method Acting) के निकट था, परन्तु भारतीय संवेदना से जुड़ा हुआ। वे कहा करते थे कि “हमारा थिएटर भारत के मनोविज्ञान से जन्म लेता है, उसे पश्चिमी ढाँचे में बाँधना उचित नहीं।”

“अलकाज़ी के अनुसार, ‘मनोहर के अंदर आत्मा की उच्चता, आत्म-निष्ठा और पूरी निष्ठा थी’।

मनोहर सिंह केवल अभिनेता नहीं थे, वे एक सधे हुए प्रशिक्षक भी थे। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमण्डल में युवा कलाकारों को प्रशिक्षण दिया — जिनमें आगे चलकर कई प्रसिद्ध अभिनेता बने। वे अभिनय को “शिल्प और साधना” दोनों मानते थे।
उनकी कार्यशालाओं में दो बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य थीं: मौन का अभ्यास — वे कहा करते, “अभिनय का अर्थ बोलना नहीं, मौन में भी संवाद करना है।” समूह-संवेदना — वे अभिनय को सामूहिक रचना मानते थे। उनके प्रशिक्षण में कलाकारों को एक-दूसरे की ऊर्जा के प्रति सजग रहना सिखाया जाता था।

भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ में आप अतिथि प्रशिक्षक, सोसाइटी सदस्य, पाठ्यक्रम समिति आदि में जीवंत और सजग उपस्थिति होती थी यहाँ उनके रंग-संस्कार की छाप देखी जा सकती है। यहाँ की अभिनय-पद्धति में “चरित्र-अन्वेषण” और “अनुभव-संपृक्ति” के जो तत्व हैं, वे मनोहर सिंह की परंपरा से ही प्रेरित हैं।

नाट्य-कृतियाँ और प्रयोगशील दृष्टि

मनोहर सिंह की रंग-यात्रा में अनेक नाट्य-कृतियाँ मील का पत्थर रहीं —‘तुगलक’ (गिरीश कर्नाड) में उनका अभिनय एक मानक माना गया; ‘आधे-अधूरे’ (मोहन राकेश) में उनके पात्र की मनोवैज्ञानिक जटिलता दर्शकों को भीतर तक छू गई; ‘बेगम बारवे’ और ‘हिम्मत माई’ में उन्होंने लिंग-परिवर्तनशील अभिनय की अनोखी मिसाल पेश की; ‘हिम्मत माई’ जिन दर्शकों ने देखा है वह स्मृति के अमिट पटल पर उकेर दिया गया है जो कभी धूमिल नहीं होगा।

उनकी यह क्षमता कि वे पुरुष और स्त्री दोनों के भाव-संवेद को समान गहराई से पकड़ लें — उनके प्रशिक्षण का परिणाम थी। यह केवल अभिनय नहीं, बल्कि भाव-अभ्यास था — अपने भीतर मौजूद स्त्री-पुरुष, भय-साहस, प्रेम-क्रोध के युग्म को संतुलित करना।

थिएटर से टेलीविज़न और सिनेमा तक

मनोहर सिंह ने बाद में टेलीविज़न और सिनेमा की दुनिया में भी कदम रखा — ‘कथा’, ‘मम्मो’, ‘दामुल’, ‘तामस’ जैसी फिल्मों में उनकी उपस्थिति स्मरणीय रही। परंतु वे मंच को कभी नहीं भूले। उन्होंने कहा था, “रंगमंच मेरा घर है, बाकी सब यात्राएँ हैं।” यह कथन उनके पूरे जीवन-दर्शन का सार है — अभिनय उनके लिए जीविका नहीं, साधना थी।
मनोहर सिंह का रंगदर्शन गहराई में मानव-मनोविज्ञान से जुड़ता है। वे मानते थे कि हर पात्र के भीतर एक मनुष्य छिपा है — उसका दर्द, उसकी कामना, उसका द्वंद्व। अभिनेता का काम है उस मनुष्य को खोज निकालना।
उनकी प्रशिक्षण-दृष्टि में इसलिए मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एक केंद्रीय तत्व था। वे छात्रों से कहते — “संवाद रटने से पहले यह जानो कि पात्र यह क्यों कह रहा है।” उनका यह दृष्टिकोण आज के आधुनिक रंगशिक्षण में भी प्रासंगिक है — जहाँ अभिनय को केवल तकनीक नहीं, बल्कि ‘भाव-अनुसंधान’ के रूप में देखा जाता है। मनोहर सिंह को 1982 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उनके योगदान की स्मृति में ‘मनोहर सिंह स्मृति पुरस्कार’ की स्थापना की। यह केवल एक सम्मान नहीं, बल्कि उस जीवंत परंपरा की स्वीकृति है जिसमें वे थिएटर को आत्म-अनुशासन और आंतरिक खोज का माध्यम मानते थे।
आज जब अभिनय-शिक्षा में तेज़ी से व्यावसायिक दृष्टिकोण (कैमरा अभिनय) बढ़ा है, मनोहर सिंह की पद्धति हमें यह याद दिलाती है कि अभिनय केवल कैमरा-फ्रेम नहीं, मानवीय अनुभव का विस्तार है।
उनका प्रशिक्षण मॉडल — आत्म-संवेदना, अनुशासन, सामाजिक दृष्टि और निरंतर अभ्यास पर आधारित था। यही चार स्तंभ आज भी किसी भी रंगमंचीय-संस्थान के लिए दिशा-सूचक हैं।
भारतीय रंगमंच में मनोहर सिंह का योगदान इस अर्थ में अद्वितीय है कि उन्होंने अभिनय करने को भारत में चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया बना दिया — जहाँ अभिनेता स्वयं अपने भीतर के अंधकार और प्रकाश दोनों से परिचित होता है। मनोहर सिंह भारतीय रंगमंच के उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने अभिनय को एक ‘साधना-प्रक्रिया’ के रूप में देखा। उनकी प्रशिक्षण-पद्धति ने रंगकर्म को जीवन-अनुभव, अनुशासन और संवेदना के संगम में बदला। और भारतेन्दु नाट्य अकादमी की प्रयोगात्मक भूमि पर खड़े होकर उन्होंने अभिनय को विचार, अध्ययन और भावनात्मक ईमानदारी से जोड़ा। उनकी विरासत यह सिखाती है कि एक सच्चा अभिनेता केवल मंच पर नहीं बनता, बल्कि जीवन के हर अनुभव में अभिनय सीखता है — और यही मनोहर सिंह की अभिनय-दृष्टि का शाश्वत संदेश है।

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

मुद्राराक्षस : जनमंच से नेपथ्य तक और असहमति का सौंदर्य

“कला जो सजाती नहीं, जगाती है।”

लखनऊ की मिट्टी में एक अजीब जादू है —
यहाँ ज़ुबान भी शराफ़त से बोलती है और विरोध भी तहज़ीब में लिपटा होता है। इसी मिट्टी ने जन्म दिया उस रचनाकार को,
जिसने रंगमंच को केवल मनोरंजन नहीं, जनचेतना का औजार बना दिया। वह थे — मुद्राराक्षस।

नाम ऐसा, जो एक साथ चौंकाता भी है और अर्थ का नया संसार भी खोल देता है।
सुभाष चंद्र आर्य से ‘मुद्राराक्षस’ बनने की यह यात्रा, दरअसल एक लेखक के भीतर उठती उस बेचैनी की कहानी है, जो शब्दों में सुलगती है और मंच पर आग बनकर जल उठती है।

लखनऊ की रगों में बसा रंग

21 जून 1933 — बेहटा, लखनऊ की एक सुबह। हवा में अवधी का अपनापन था, और इतिहास की सांझ में नया देश आकार ले रहा था। इसी वातावरण में जन्मे मुद्राराक्षस ने लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा ली, पर सीखा समाज से — उस समाज से जो तब भी वर्ग, जाति और सत्ता की दीवारों में बँटा था। उन्होंने महसूस किया कि जब तक आदमी की सोच पर डर का पहरा है, कला की कोई आज़ादी नहीं। यहीं से शुरू हुई उनकी यात्रा—रंगमंच के ज़रिए समाज से संवाद करने की यात्रा।

‘मुद्राराक्षस’ — विशाखदत्त के प्रसिद्ध नाटक का वह मंत्री जो छल के विरुद्ध नीति का प्रतीक था। मुद्राराक्षस जी ने यही नाम इसलिए अपनाया, क्योंकि वे सत्ता के दरबार में नहीं, सत्य के मंच पर खड़े लेखक थे। उनकी दृष्टि में लेखक वही है, जो तख़्त से नहीं, ज़मीर से सवाल करता है। “लेखक अगर सबको पसंद आने लगे, तो समझो उसने सच्चाई से मुँह मोड़ लिया।” मुद्राराक्षस के लिए नाटक कभी तमाशा नहीं था। वह जनजीवन का साक्षात्कार था, जहाँ हर पात्र अपने समय का गवाह बनता है। उन्होंने मंच को ‘लोक’ से जोड़ा, और कला को सत्ता से अलग किया। उनके नाटक दर्शकों से संवाद नहीं, मुक़ाबला करते हैं।

उनकी प्रमुख कृतियाँ —
‘आला अफ़सर’, ‘बदबख़्त बादशाह’, ‘दंडविधान’, ‘कालातीत’, ‘हस्तक्षेप’, ‘आत्माराम’ आदि समाज की दुखती नब्ज़ पर उँगली रखती हैं।
आलाअफसर नाटक - व्यंग्य का दरबार
‘आला अफ़सर’ में मुद्राराक्षस एक छोटे कस्बे की नौकरशाही का ऐसा चित्र खींचते हैं
जो आज भी हमारे आसपास दिखता है।
एक काल्पनिक आला अफ़सर के आने की अफ़वाह पूरे शहर को भ्रष्ट बना देती है —
हर अधिकारी झूठे दिखावे में मग्न,
हर व्यक्ति डर की गिरफ्त में। यह नाटक सत्ता के भय की मनोविज्ञानिक व्याख्या है। वह दिखाता है कि डर ही सबसे बड़ा अफ़सर है। भाषा में अवधी की मिठास है, और व्यंग्य में लखनऊ का नमक। संवाद ऐसे हैं जो हँसाते भी हैं और भीतर तक चुभ जाते हैं-“हमारे यहाँ ईमानदारी की पोस्ट खाली पड़ी है पर कोई आवेदन देने की हिम्मत नहीं करता।” ‘आला अफ़सर’ में मुद्राराक्षस ने ब्रेख्तीय दूरीकरण को भारतीय लोकशैली में ढालकर रंगमंच को विचार का अखाड़ा बना दिया।

‘बदबख़्त बादशाह’ : सत्ता का आत्मसंवाद

‘बदबख़्त बादशाह’ उनके सबसे गूढ़ और दार्शनिक नाटकों में है। यह एक ऐसे शासक की कथा है जो सत्ता की ऊँचाई पर है,
पर भीतर से भय और एकांत में घिरा है।
मंच पर यह नाटक रोशनी और छाया, ध्वनि और मौन का अद्भुत संयोजन है।
बादशाह के संवाद अपने आप से संवाद बन जाते हैं — एक मानसिक रंगभूमि जहाँ सत्ता की चुप्पी सबसे बड़ा शोर है।  “राजा के पास सब है — दरबार, तलवार, तख़्त, बस एक चीज़ नहीं — यकीन।” मुद्राराक्षस यहाँ ‘नेपथ्य’ की तकनीक से दृश्यहीन घटनाओं को प्रकट करते हैं 

लोक और आधुनिकता का संगम

मुद्राराक्षस के नाटक में लोकगीत, कवित्त, संवाद और प्रतीक समान रूप से नृत्य करते हैं। उनकी रंगभाषा गंगा-जमुनी तहज़ीब से सनी हुई है। वह आधुनिकता को लोक की लय में पिरोते हैं।

उनके मंच पर ‘वाचक/सूत्रधार/नट, नाती’ आदि पात्र अक्सर दिखाई देता है — जो कथा कहता है, समाज पर टिप्पणी करता है,
और दर्शक को सोचने पर मजबूर करता है।
यह प्रयोग भारतीय पारंपरिक रंगमंच और पाश्चात्य के बर्तोल्त ब्रेख्त की शैली से मिलता है, पर मुद्रा जी लेखनी में स्वाद पूरी तरह भारतीय है।

विचार की निष्ठा, विचारधारा से परे

मुद्राराक्षस किसी एक विचारधारा के लेखक नहीं थे, बल्कि विवेक के लेखक थे। किसी की दासता नहीं स्वीकारी। मुद्रा जी का लेखन वर्ग और जाति के संघर्षों को
संवेदनशील यथार्थ में रूपांतरित करता है। वे कहते थे —  “कला वही है जो आदमी को आदमी से मिलाए।”

मुद्राराक्षस ने हिंदी नाट्य-आलोचना को नई दिशा दी। आपकी पुस्तकें ‘हिंदी नाटक और रंगमंच’, ‘सृजन की सामाजिकता’, ‘नाट्य और समय’ — आज भी नाट्य अध्ययन और विवेचना के ग्रंथ माने जाते हैं। बाल-साहित्य में मुद्रा जी ने न्याय और कल्पना का संतुलन रचा। उनकी कहानियों में बच्चों के ज़रिए बड़ों की मूर्खता पर व्यंग्य किया गया है।

लखनऊ की तहज़ीब में विद्रोह की चमक

लखनऊ ने उन्हें भाषा दी और उन्होंने लखनऊ को आवाज़ दी। उनकी लेखनी में नफ़ासत है, मगर भीतर लावा भी। वे वही कहते थे जो ‘कहना जरूरी’ था, भले उससे किसी का दरबार नाखुश क्यों न हो जाए।

कई बार तो यह वाक्य सीधा आता था कि  “मैं लखनऊ का हूँ, इसलिए मुस्कराकर विरोध करता हूँ।”

13 जून 2016 को मुद्राराक्षस इस धरती से विदा हुए, पर उनके शब्द अब भी मंच पर जीवित हैं — कभी नुक्कड़ पर, कभी विश्वविद्यालय के सभागार में, कभी किसी अभिनेता की आँखों में जो असलियत कहना चाहता है। आज जब अभिव्यक्ति पर पहरे हैं, मुद्राराक्षस का रंगमंच हमें याद दिलाता है कि कला की असली ताकत उसकी असहमति में है। ‘आला अफ़सर’ आज भी किसी भी सिस्टम का आईना है, ‘बदबख़्त बादशाह’ आज भी सत्ता की तन्हाई की कहानी।

मुद्राराक्षस अब कोई व्यक्ति नहीं, एक दृष्टि, एक चेतना और एक ज़रूरत हैं। उनकी रचनाएँ बताती हैं कि रंगमंच तब जीवित होता है जब वह सवाल करता है। वे हमें सिखाते हैं कि मंच पर खड़ा अभिनेता सिर्फ़ पात्र नहीं, लोक की आवाज़ होता है। “शब्द जब मंच पर उतरते हैं, तो वे केवल संवाद नहीं, विद्रोह बन जाते हैं।”

हँसी की विदूषक-उड़ान: बंसी कौल की रंगभूमि, प्रयोग और संवेदना

हँसी की विदूषक-उड़ान: बंसी कौल की रंगभूमि, प्रयोग और संवेदना कश्मीर-जड़ों से निकलकर लोक-हँसी, विदूषक-परंपरा व शारीरिक अभिव्यक्ति के माध्यम से हिन्दी-रंगमंच में नया क्षितिज खोलने वाले बंसी कौल के रंग-साधना-यात्रा|

मंच पर एक विदूषक जब मुखौटा पहनता है, तब सिर्फ हँसी उत्पन्न नहीं होती—वह संवेदना, चिंतन और लोक-स्मृति का भी आरंभ होती है। बंसी कौल की रंग-जगत में यह विदूषक-उड़ान उसी दिशा की ओर इशारा करती है। उनके नाट्य-अनुभव, प्रयोग-शैली, प्रशिक्षण-दृष्टि और दृश्य-निर्माण ने हिन्दी रंगमंच को सिर्फ नया रूप नहीं दिया बल्कि एक नया मनोसेतु स्थापित किया। इस लेख में हम उनकी रंगकर्म-यात्रा को उस सतह से उठाकर देखेंगे जहाँ लोक, हँसी, मंच-दृष्टि और सामाजिक-साक्ष्य आपस में पूर्णता से मिलने लगे।

बंसी कौल का जन्म 23 अगस्त 1949 को श्रीनगर (जम्मू एवं कश्मीर) में हुआ। एक कश्मीरी पंडित-परिवार से आने वाले कौल बचपन से चित्रकला-रंग और अभिनय-उत्सव के प्रति संवेदनशील थे। दिल्ली आकर National School of Drama (NSD) में स्टेजक्राफ्ट में शिक्षा ली और वहाँ से स्नातक हुए। उनकी पृष्ठभूमि ने उनके मन में मंच-स्थान, देह-भाषा, दृश्य-निर्माण और लोक-शैलियों के प्रति गहरी संवेदना जगाई। उनकी प्रारंभिक रंग-खोज केवल अभिनेता-भूमि तक सीमित नहीं रही; वे डिज़ाइन-मंच, स्थल-संकल्प, लोक-हँसी-निर्माण तक विस्तारित हुई।

1984 में उन्होंने भोपाल में अपनी संस्था Rang Vidushak की स्थापना की। संस्था का उद्देश्य था: “जहाँ हँसी नया उत्सव-भाषा बने।” 
“For the stage artist, Proscenium Barrier must be broken in the mind first, rather than the body.”
इसका अर्थ यह था कि दर्शक-मंच विभाजन सिर्फ फिजिकल नहीं—मानसिक भी है। उन्होंने लोक-खेल, जोकर-हँसी, ग्रामीण-खेल, रस-गीतों और मिथकों को आधुनिक रंगभाषा में समाहित किया। रंग विदूषक ने सिर्फ प्रदर्शन नहीं की, बल्कि कलाकार-प्रशिक्षण, स्थल-शोध, लोक-अनुभव-रूपांतरण भी किया।

कौल की रंगदृष्टि ने मनोरंजन और चिंतन के बीच सेतु बनाया। उन्होंने रंगमंच को सिर्फ ‘दिखाने’ का माध्यम नहीं माना, बल्कि जीने, सोचने, साझा अनुभव बनाने का। आपने हँसी को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि विप्लव-भाषा बनाया। आपके नाटकों में नौटंकी, भवई-परंपरा, विदूषक-शैली और संघर्ष है। नाटको के मंचन केवल शहरी-मंच में नहीं, बल्कि गाँव-मंच, खुला-मंच, अवहेलित-स्थल में करने का प्रयास करते रहे। अक्सर वो एक उद्धरण दिया करते थे कि ‘विदूषक’ को सिर्फ जोकर नहीं बनाया है—बल्कि मंच-चिंतक बनाना चाहता हूँ। इस दृष्टि से उनका रंगमंच ‘हँसकर - सोचने’ का स्थान बना।
 आपने रूस के निकोलाई गोगोल के द गवर्नमेंट इंस्पेक्टर नाटक को आदरणीय मुद्रा राक्षस जी से “आला अफसर” के रूप में लिखवाया। बंसी दादा ने आला अफसर को  नौटंकी-शैली में प्रस्तुत किया। कहन कबीर संत कबीर की रचनाओं पर आधारित नाटक है इसमें लोक-भाषा, भक्ति-चिंतन और सामाजिक-संदर्भ मिश्रित रूप में दिखते है। “सीढ़ी दर सीढ़ी उर्फ तुक्के पर तुक्का” चीनी लोककथा के आधार पर हिन्दी-मंच में रूपांतरित अद्भुत नाटक बनाया है। साथ ही सौदागर, पगलाए गुस्से का धुआँ, एक तारा टूटा, शबे तार, शर्विलक, मस्त कलंदर, तमंचा खान की ग़जब दास्तान, पल एक हंसी का, खेल गुरु का, रंग बिरंगे जूते आदि प्रमुख नाटक हैं जिनमें से कुछ नाटकों में लेखन में भी अपना रंग चढ़ाया। आपको फोर्ड फाउंडेशन से प्राप्त सहयोग प्राप्त हुआ। बंसी जी  ने रंग-शिक्षा को सिर्फ तकनीकी प्रशिक्षण नहीं माना, बल्कि जीवन-अनुभव का मंच माना। आपके नाटको में न्यून संसाधन से मंच पर अधिक प्रभावी लगाने लगते थे। कलाकार को पहले “मनुष्य” बनना है। बंसी जी केवल निर्देशक नहीं बल्कि दृश्‍य-निर्माता थे। उन्होंने मंच-डिजाइन, सेट-सैटिंग, मुख-सज्जा में नयापन लाया। आप 1986-87 में खजुराहो नृत्य महोत्सव के आर्ट-डायरेक्टर थे तथा 2010 के कॉमन वेल्थ गेम के उद्घाटन-समारोह में डिजाइन-टीम में शामिल थे। आपका मानना था कि कोई माध्यम सीमा नहीं, वरन अवसर है—चाहे बजट कम हो, मंच चालू-खुला हो।
आपके नाटकों की भाषा-शैली में अनूठा मिश्रण मिलता था — लघु एवं तीव्र संवाद, देह-भाषा का प्रयोग, लोक-उच्चार, और सहज-लोक-भाव। इस वजह से उनका रंगमंच ‘लोक’ और ‘शहर’ दोनों का था। लोक-हँसी को उन्होंने लोकप्रियता के साधन के रूप में नहीं, बल्कि संवेदन-भागी के रूप में देखा। उनके नाटकों में यही संतुलन था- मनोरंजन और विचार, खेल-हँसी और सामाजिक-चिंतन। आप हंसी एक उत्सव थे। कुल मिलाकर बंसी कौल की तकनीक रंगशिल्प में भराव लाती है। उनके निर्देशक, अभिकल्पक और दृश्यकल्पक व्यक्तित्व की अन्विति बनती है। कौल का रंग-मुहावरा देखने-सुनने में जितना सीधा-सरल लगता है, उतना ही दुरूह है। उसकी जड़ों के लिए उस जमीन की समझ आवश्यक ठहरती है, जिसमें वह गढ़ा गया
बंसी जी का रंगमंच सिर्फ कला-भूमि तक सीमित नहीं था; उसमें सामुदायिक-स्मृति, विस्थापन, लोक-विमर्श का समावेश था। उनकी आखिरी प्रस्तुति “पगलाए गुस्से का धुआँ” कश्मीर-पंडितों के विस्थापन पर आधारित थी। जिसे भारतेन्दु नाट्य अकादमी के छात्रों के साथ प्रस्तुत किया था इस समय मैं नाटक में प्रकाश परिकल्पना कर रहा था तो कहा कि मनोज तुम नाटक बन्द मत करना अभी तुम्हारे अंदर नाटक को खोजने की ललक बहुत भरी हुई है।

आपको मध्य प्रदेश सरकार से 1994 का शिखर सम्मान और उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से 1995 का सफदर हाशमी सम्मान संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1995 और पद्मश्री सम्मान 2014, कालिदास सम्मान 2016 में प्रदान किया गया। यदि रंगमंच को एक वृक्ष मान लें, तो बंसी कौल ने उसे ‘लोक-जड़’ से उगाया, ‘हँसी-फल’ से सजाया और ‘चिंतन-फल’ से परिरक्षित किया। उनके मंच-उपकरण-जोकर-मुखौटा, लोक-गीत, देह-प्रकाश-लय- केवल दृश्य-नाट्य नहीं बल्कि मानव-अनुभूति-माध्यम बने। उनकी अनुपस्थिति में भी उनकी छाया बनी हुई है — यह स्मरण कराती है कि लोक और आधुनिकता, हँसी और विचार, मंच और जीवन के बीच द्वंद्व नहीं, समन्वय हो सकता है।
 “थिएटर को सस्ता-पोस्टर नहीं, संवेदन-सूचना बनाना चाहिए।” – बंसी कौल