अलखनन्दन: लेखक, निर्देशक, पत्रकार और रंगमंच के सिद्धांतकार
भारतीय रंगमंच का इतिहास जितना शास्त्रीय परंपराओं से समृद्ध है, उतना ही आधुनिक युग में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों से भी प्रभावित रहा है। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दी रंगमंच को जिन कलाकारों ने नयी दिशा दी, उनमें अलखनन्दन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे केवल मंचीय निर्देशक ही नहीं बल्कि लेखक, पत्रकार, शिक्षक, रंग-चिन्तक, कवि और सिद्धांतकार भी थे।
उनकी दृष्टि में रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि लोक-संस्कृति, सामाजिक चेतना और कलात्मक प्रयोगों का संगम था। ग्रामीण अंचलों में रंगकर्म को पहुँचाना, लोक नाट्य स्वाँग और बुंदेलखण्डी नाट्य-शैलियों को पुनर्जीवित करना, बाल-रंगमंच को प्रोत्साहन देना और शहरी-ग्रामीण दर्शकों के बीच संवाद स्थापित करना उनके कार्य की विशेषता रही।
अलखनन्दन जी का जन्म बिहार के में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा स्थानीय विद्यालयों में प्राप्त करने के बाद वे साहित्य और रंगमंच की ओर प्रवृत्त हुए। रंगकर्म की शुरुआत उन्होंने पत्रकारिता के साथ की—सामाजिक मुद्दों पर लिखते हुए उन्हें समझ में आया कि रंगमंच जनता तक सीधे पहुँचने का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम हो सकता है। उनका रंगमंचीय सफर जबलपुर और भोपाल जैसे सांस्कृतिक नगरों से जुड़ा।
मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में विवेचना के लिए नाटकों का निर्देशन किया और बाद में भारत भवन रंगमंडल में सहायक निदेशक के रूप में कार्य किया। फिर नटबुंदेले रंग संस्था की स्थापना की। आप भारतेन्दु नाट्य अकादमी और पंजाब विश्वविद्यालय के नाट्य विभाग में अतिथि निर्देशक के रूप में कार्य किया। उर्दू थिएटर ट्रस्ट, बंगलौर तथा देश के कई संस्थानों में नाट्य कार्यशालाएँ संचालित कीं।
अलखनन्दन जी ने कई नाटक लिखे जिनमें उनके सामाजिक सरोकार और व्यंग्यात्मक दृष्टि स्पष्ट दिखती है: चंदा बेड़नी – समाज के हाशिये पर जी रही महिला की कथा। राजा का स्वांग, उजबक राजा, तीन डकैत, स्वांग मल्टीनेशनल, स्वांग शकुंतला – सत्ता, भ्रष्टाचार और व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार दिखता है। उनके लेखन में भाषा का लोकजीवन से जुड़ा सरल, प्रभावी और हास्य-व्यंग्य मिश्रित स्वरूप मिलता है।
निर्देशक के रूप में उनकी प्रतिभा ने हिन्दी रंगमंच को नए प्रयोगों से परिचित कराया। उन्होंने न केवल अपने नाटक बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय लेखकों के नाटक भी मंचित किए: वेटिंग फ़ॉर गोड़ो का छत्तीसगढ़ी अनुवाद गौड़ा ला देखत हन, महानिर्वाण, मगध, ताम्रपत्र, सुपनवा का सपना, चारपाई,ताँबे के कीड़े, काव्यरंग, अँडोरा, अखाड़े के बाहर, भगवदज्जुकम्, उजबक राजा तीन डकैत आदि प्रमुख हैं उनके निर्देशन में नाटकों की दृश्य संरचना, लोकगीतों और संगीत का प्रयोग, मंच सज्जा और अभिनेताओं का जीवंत संवाद दर्शकों को मोहित कर आकर्षित करता था।
बच्चे कल नौजवान होंगे, अलखनन्दन की सबसे बड़ी देन बाल रंगमंच है। उन्होंने बच्चों के लिए अनेक नाटक लिखे और प्रस्तुत किए: जिनमें सलोनी गौरेया, जादू का सूट, नारद जी फँसे चकल्लस में, मूरख गुरु के मूरख चेले, अक्ल से सबकी करो भलाई, भेड़िया तंत्र, हम हवाएँ, हमारी पृथ्वी इत्यादि। आप बच्चों की रंग-प्रतिभा को विकसित करने के लिए कार्यशालाएँ आयोजित करते और उन्हें मंच पर लाने का साहसिक प्रयास करते थे।
अलखनन्दन जी ने बुंदेलखण्डी स्वांग जैसी लुप्तप्राय लोकनाट्य शैलियों को पुनर्जीवित किया। 1992-96 के बीच भारत सरकार की वरिष्ठ फेलोशिप उन्हें स्वांग पर शोध और उसके पुनराविष्कार के लिए प्रदान की गई। आप मानते थे कि लोक परंपराएँ भारतीय रंगमंच की आत्मा हैं और वर्तमान आधुनिक नाटक को लोक नाटकों से शक्ति लेनी चाहिए। अलखनन्दन जी की रंग दृष्टि और रंग-चिन्तन में कुछ मुख्य सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं:
नाटक को समाज की समस्याओं, वर्गीय-जातीय असमानताओं और मानवीय अन्याय पर विचार करना चाहिए। स्वांग, लोकगीत, लोकभाषा और कथावाचन शैली को आधुनिक नाटकों में समावेश कर दर्शकों के निकट लाना। पारंपरिक मंचन के साथ नयी तकनीक, दृश्य संरचना और कथावाचन की शैलियों का प्रयोग। बच्चों और युवाओं के लिए रंगमंच को शिक्षा और व्यक्तित्व निर्माण का साधन बनाना। आप मानते थे कि नाटक केवल भावनाओं का विस्फोट नहीं बल्कि एक सुसंगठित कला है जिसमें अभिनय, वेशभूषा, संगीत, प्रकाश और संवाद सभी घटक एक समग्र रूप देते हैं।
अलखनन्दन जी के रंगमंचीय योगदान के अनेक राष्ट्रीय-राज्य स्तरीय सम्मान मिले जिनमें मध्यप्रदेश शासन का शिखर सम्मान (2006), मास्टर फिदा हुसैन नरसी सम्मान, श्रेष्ठ कला-आचार्य सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (निर्देशन), लाइफ-टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड आदि।
अपने जीवन के अंतिम समय तक रंगमंच के प्रति सक्रिय रहे। अलखनन्दन जी हिन्दी रंगमंच के जनपक्षधर, प्रयोगशील और लोकाभिमुख रंगकर्मी थे। उन्होंने लेखक, निर्देशक, पत्रकार और सिद्धांतकार के रूप में भारतीय रंगमंच को गहराई दी।
उनके नाटकों में व्यंग्य, हास्य और लोकभाषा का प्रयोग है तो उनके निर्देशन में अनुशासन, लोकसंगीत और नवाचार की झलक है। आप मानते थे कि रंगमंच जीवन से अलग नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि में नाटक एक सामाजिक संवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का औजार है। उनके विचार और कार्य आज भी रंगकर्मियों के लिए मार्गदर्शक हैं।
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