इरफ़ान सौरभ: बाल रंगमंच के क्षेत्र में उनका योगदान
भोपाल, मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक भूमि हमेशा से कला और रंगकर्म की दृष्टि से उर्वर रही है। इसी भूमि ने अनेक ऐसे कलाकार दिए हैं जिन्होंने भारतीय रंगमंच को नई दिशा प्रदान की। उन्हीं में एक उल्लेखनीय नाम है — इरफ़ान सौरभ, जिन्होंने बाल रंगमंच के क्षेत्र में अपनी सृजनशीलता, समर्पण और प्रयोगशीलता से एक विशिष्ट पहचान बनाई।
पेशे से शिक्षक इरफ़ान सौरभ का रंगकर्म बालमन की जिज्ञासा, खेल और संवेदना को केंद्र में रखकर विकसित हुआ। वे मानते थे कि रंगमंच केवल मंच पर अभिनय नहीं, बल्कि सीखने और सोचने की प्रक्रिया है। इसीलिए उन्होंने बच्चों को दर्शक नहीं, बल्कि सहभागी माना। उनके नाट्य प्रयासों में बच्चे केवल संवाद बोलने वाले पात्र नहीं थे, बल्कि विचार व्यक्त करने वाले छोटे नागरिक थे, जिनके माध्यम से समाज और शिक्षा के बीच एक रचनात्मक सेतु बनता था।
उन्होंने भोपाल और आसपास के इलाकों में अनेक बाल नाट्य कार्यशालाएँ आयोजित कीं, जहाँ अभिनय को केवल कला नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया। इन कार्यशालाओं में बच्चों को कहानी गढ़ने, दृश्य रचने और समूह में काम करने की स्वतंत्रता दी जाती थी। इससे उनमें आत्मविश्वास और सामाजिक सहयोग की भावना विकसित होती थी।
इरफ़ान सौरभ के बाल नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे स्थानीय लोकसंस्कृति से गहराई से जुड़े थे। उनके नाटकों में मध्य प्रदेश की लोकभाषाओं, गीतों और प्रतीकों का सजीव प्रयोग मिलता है। इससे बाल दर्शक अपने आस-पास की दुनिया से सीधा संबंध महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, उनके नाटक “कचरा रानी” में पर्यावरण संरक्षण का संदेश लोकगीतों और हास्य के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि वह बच्चों के लिए मनोरंजक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी बन गया।
उनके कई नाटकों में सामाजिक विषयों की झलक मिलती है — जैसे जल-संरक्षण, शिक्षा का अधिकार, लैंगिक समानता, और स्वच्छता। परंतु उन्होंने इन विषयों को किसी उपदेशात्मक ढंग से नहीं, बल्कि खेल, कल्पना और प्रतीक के माध्यम से प्रस्तुत किया। यही उनकी रंगदृष्टि की विशिष्टता थी — गंभीर बात को सरलता में ढाल देना।
इरफ़ान सौरभ ने शिक्षा और रंगमंच के संबंध को भी नए अर्थों में देखा। उनके अनुसार, “रंगमंच वह स्थान है जहाँ बच्चा सीखने की प्रक्रिया को जीता है, न कि केवल सुनता या पढ़ता है।” उन्होंने विद्यालयों में नाटक को शिक्षण-पद्धति का हिस्सा बनाने के कई प्रयोग किए। बच्चों ने नाट्य-अभिनय के माध्यम से इतिहास, विज्ञान और भाषा के पाठों को आत्मसात करना सीखा। इस प्रकार उनका बाल रंगमंच केवल सांस्कृतिक गतिविधि नहीं, बल्कि शिक्षाशास्त्र का एक सशक्त उपकरण बन गया।
मंच-संरचना की दृष्टि से इरफ़ान सौरभ सादगी और प्रतीकात्मकता में विश्वास रखते थे। वे मानते थे कि बाल रंगमंच का प्रभाव मंच की भव्यता से नहीं, बल्कि कल्पना की गहराई से आता है। इसलिए उनके नाटकों में रंग, ध्वनि, और गति का संयोजन बच्चों की कल्पनाशक्ति को सक्रिय करने के उद्देश्य से किया जाता था।
बाल रंगमंच के प्रति उनके इस समर्पण और नवाचार को विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं ने सराहा। उन्हें मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद और भारत भवन जैसे मंचों पर सम्मान प्राप्त हुआ। उनके नाट्य निर्देशन को राष्ट्रीय बाल नाट्य समारोहों में भी सराहा गया, जहाँ समीक्षकों ने उनके कार्य को “बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ” कहा।
इरफ़ान सौरभ का योगदान इस दृष्टि से विशिष्ट है कि उन्होंने बाल रंगमंच को केवल मनोरंजन के सीमित घेरे से निकालकर संवेदना, शिक्षा और समाज-निर्माण की दिशा में विस्तारित किया। उन्होंने यह साबित किया कि यदि रंगकर्मी बच्चे के मन, उसकी जिज्ञासा और उसके परिवेश को समझे, तो रंगमंच उसके व्यक्तित्व-निर्माण का सशक्त माध्यम बन सकता है।
उनकी रंगदृष्टि आज भी शिक्षकों, कलाकारों और अभिभावकों के लिए प्रेरणास्रोत है। उन्होंने जो रास्ता दिखाया — कि कला शिक्षा की आत्मा है, और बाल रंगमंच समाज का दर्पण — वही उनकी स्थायी विरासत है। आप रंगमंच में अलखनंदन के शिष्य और अभिनेता थे| वरिष्ठ रंगकर्मी इरफान सौरभ 64 वर्षीय इरफान कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे। खान सर के नाम से पहचाने जाने वाले इरफान 1973 से रंगमंच में सक्रिय थे। उन्होंने नाटक महानिर्वाण, चंदा बेड़नी, कबीरा खड़ा बाजार में जैसे नाटकों में अभिनय किया। आप मप्र संस्कृति विभाग के बाल रंगमंडल के प्रमुख भी थे।
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