जावेद ज़ैदी : भोपाल के रंगमंच का सजीव स्वप्न
जावेद ज़ैदी मध्य भारत के रंगकर्म से जुड़े उन महत्वपूर्ण नामों में हैं जिन्होंने नाटक को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक संवाद का माध्यम माना। दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्होंने भोपाल को अपनी कर्मभूमि बनाया और रंगकर्म को नई भूमि प्रदान की ।
भारत भवन के रंगमंडल से उनका गहरा जुड़ाव रहा। आप भारत भवन रंगमंडल के प्रमुख रहे। भारत भवन, भारतीय सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र है, वहाँ जावेद भाई ने अनेक प्रयोगात्मक प्रस्तुतियों में ब0 व0 कारंथ, हबीब तनवीर, फ्रिट्ज बेनेविट्ज़, अलखनंदन आदि के प्रमुख सहयोगी रहे । आपका दृष्टिकोण मंच को यथार्थ और स्वप्न के बीच की जगह बनाना था—जहाँ समाज की जटिलताएँ, मानवीय संवेदनाएँ और विरोधी स्वर भी मिलते हैं।
आपने भोपाल में ‘संभावना रंग समूह’ की स्थापना की, जो आपके निर्देशन में मध्यप्रदेश का एक सशक्त नाट्य-समूह बना। इस समूह ने एक टूटी हुई कुर्सी, टोपी शुक्ला, इस साले साठे का क्या करूँ, मुगलों ने सल्तनत बख्स दी, आदि प्रमुख नाटकों की प्रस्तुति की। साथ ही अलखनंदन जी के निर्देशन में रामेश्वर प्रेम जी के नाटक 'चारपाई' में बूढ़े की मुख्य भमिका के लिए आपको सदैव याद किया जाता है। आपके नाटकों में समकालीन समाज की विडंबनाएँ, राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियाँ और व्यक्ति की आत्मिक खोज झलकती है। ज़ैदी जी की शैली में संवाद की गहराई, दृश्यबोध की संवेदनशीलता और अभिनेता के मनोविज्ञान की सटीक पकड़ दिखाई देती थी। नाट्य प्रस्तुति 'एक टूटी हुई कुर्सी' ने दर्शकों और समीक्षकों दोनों को आकर्षित किया — इसमें टूटती हुई सत्ता और टूटते हुए विश्वास की प्रतीकात्मक कथा थी। उनके नाटक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और रंगभाषा की परिपक्वता का उदाहरण हैं। 2014 में जब वे विजय तेंदुलकर का नाटक कमला भारत भवन में प्रस्तुत करने की तैयारी में थे, तभी बीमारी के चलते उनका निधन हो गया। और “भोपाल रंगमंच का महत्वपूर्ण स्तंभ” टूट गया।
जावेद ज़ैदी का रंगकर्म एक सेतु की तरह थे पारंपरिक भारतीय रंगपरंपरा और आधुनिक विचारधारा के बीच। उन्होंने थिएटर को लोकजीवन, राजनीति और मनोविज्ञान के सम्मिलित बिंब के रूप में देखा। उनकी स्मृति आज भी भोपाल के मंचों, कलाकारों और दर्शकों के बीच जीवित है — एक ऐसे कलाकार के रूप में जिसने थिएटर को जीवन की सच्चाई से जोड़ा।
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