बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

इरफ़ान सौरभ: बाल रंगमंच के क्षेत्र में उनका योगदान

इरफ़ान सौरभ: बाल रंगमंच के क्षेत्र में उनका योगदान

भोपाल, मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक भूमि हमेशा से कला और रंगकर्म की दृष्टि से उर्वर रही है। इसी भूमि ने अनेक ऐसे कलाकार दिए हैं जिन्होंने भारतीय रंगमंच को नई दिशा प्रदान की। उन्हीं में एक उल्लेखनीय नाम है — इरफ़ान सौरभ, जिन्होंने बाल रंगमंच के क्षेत्र में अपनी सृजनशीलता, समर्पण और प्रयोगशीलता से एक विशिष्ट पहचान बनाई।

पेशे से शिक्षक इरफ़ान सौरभ का रंगकर्म बालमन की जिज्ञासा, खेल और संवेदना को केंद्र में रखकर विकसित हुआ। वे मानते थे कि रंगमंच केवल मंच पर अभिनय नहीं, बल्कि सीखने और सोचने की प्रक्रिया है। इसीलिए उन्होंने बच्चों को दर्शक नहीं, बल्कि सहभागी माना। उनके नाट्य प्रयासों में बच्चे केवल संवाद बोलने वाले पात्र नहीं थे, बल्कि विचार व्यक्त करने वाले छोटे नागरिक थे, जिनके माध्यम से समाज और शिक्षा के बीच एक रचनात्मक सेतु बनता था।

उन्होंने भोपाल और आसपास के इलाकों में अनेक बाल नाट्य कार्यशालाएँ आयोजित कीं, जहाँ अभिनय को केवल कला नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया। इन कार्यशालाओं में बच्चों को कहानी गढ़ने, दृश्य रचने और समूह में काम करने की स्वतंत्रता दी जाती थी। इससे उनमें आत्मविश्वास और सामाजिक सहयोग की भावना विकसित होती थी।

इरफ़ान सौरभ के बाल नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे स्थानीय लोकसंस्कृति से गहराई से जुड़े थे। उनके नाटकों में मध्य प्रदेश की लोकभाषाओं, गीतों और प्रतीकों का सजीव प्रयोग मिलता है। इससे बाल दर्शक अपने आस-पास की दुनिया से सीधा संबंध महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, उनके नाटक “कचरा रानी” में पर्यावरण संरक्षण का संदेश लोकगीतों और हास्य के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत किया गया कि वह बच्चों के लिए मनोरंजक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी बन गया।

उनके कई नाटकों में सामाजिक विषयों की झलक मिलती है — जैसे जल-संरक्षण, शिक्षा का अधिकार, लैंगिक समानता, और स्वच्छता। परंतु उन्होंने इन विषयों को किसी उपदेशात्मक ढंग से नहीं, बल्कि खेल, कल्पना और प्रतीक के माध्यम से प्रस्तुत किया। यही उनकी रंगदृष्टि की विशिष्टता थी — गंभीर बात को सरलता में ढाल देना।

इरफ़ान सौरभ ने शिक्षा और रंगमंच के संबंध को भी नए अर्थों में देखा। उनके अनुसार, “रंगमंच वह स्थान है जहाँ बच्चा सीखने की प्रक्रिया को जीता है, न कि केवल सुनता या पढ़ता है।” उन्होंने विद्यालयों में नाटक को शिक्षण-पद्धति का हिस्सा बनाने के कई प्रयोग किए। बच्चों ने नाट्य-अभिनय के माध्यम से इतिहास, विज्ञान और भाषा के पाठों को आत्मसात करना सीखा। इस प्रकार उनका बाल रंगमंच केवल सांस्कृतिक गतिविधि नहीं, बल्कि शिक्षाशास्त्र का एक सशक्त उपकरण बन गया।

मंच-संरचना की दृष्टि से इरफ़ान सौरभ सादगी और प्रतीकात्मकता में विश्वास रखते थे। वे मानते थे कि बाल रंगमंच का प्रभाव मंच की भव्यता से नहीं, बल्कि कल्पना की गहराई से आता है। इसलिए उनके नाटकों में रंग, ध्वनि, और गति का संयोजन बच्चों की कल्पनाशक्ति को सक्रिय करने के उद्देश्य से किया जाता था।

बाल रंगमंच के प्रति उनके इस समर्पण और नवाचार को विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं ने सराहा। उन्हें मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद और भारत भवन जैसे मंचों पर सम्मान प्राप्त हुआ। उनके नाट्य निर्देशन को राष्ट्रीय बाल नाट्य समारोहों में भी सराहा गया, जहाँ समीक्षकों ने उनके कार्य को “बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ” कहा।

इरफ़ान सौरभ का योगदान इस दृष्टि से विशिष्ट है कि उन्होंने बाल रंगमंच को केवल मनोरंजन के सीमित घेरे से निकालकर संवेदना, शिक्षा और समाज-निर्माण की दिशा में विस्तारित किया। उन्होंने यह साबित किया कि यदि रंगकर्मी बच्चे के मन, उसकी जिज्ञासा और उसके परिवेश को समझे, तो रंगमंच उसके व्यक्तित्व-निर्माण का सशक्त माध्यम बन सकता है।

उनकी रंगदृष्टि आज भी शिक्षकों, कलाकारों और अभिभावकों के लिए प्रेरणास्रोत है। उन्होंने जो रास्ता दिखाया — कि कला शिक्षा की आत्मा है, और बाल रंगमंच समाज का दर्पण — वही उनकी स्थायी विरासत है। आप रंगमंच में अलखनंदन के शिष्य और अभिनेता थे| वरिष्ठ रंगकर्मी इरफान सौरभ  64 वर्षीय इरफान कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे। खान सर के नाम से पहचाने जाने वाले इरफान 1973 से रंगमंच में सक्रिय थे। उन्होंने नाटक महानिर्वाण, चंदा बेड़नी, कबीरा खड़ा बाजार में जैसे नाटकों में अभिनय किया। आप मप्र संस्कृति विभाग के बाल रंगमंडल के प्रमुख भी थे।

डॉ. सचिन तिवारी इलाहाबाद

डॉ. सचिन तिवारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय (Department of English) से जुड़े रहे हैं, इलाहाबाद विश्वविद्यालयमें रंगमंच के एक सक्रिय अकादमिक तथा नाट्य-प्रवर्तक (theatre practitioner) के रूप में पहचाने जाते थे। 

कैंपस थिएटर के निर्देशक/प्रमुख मार्गदर्शक के रूप में डॉ. सचिन तिवारी का काम विश्वविद्यालय के अंतर्गत छात्रएं और कलाकारों में नाट्य-परिदृश्य को लगातार सशक्त करने का रहा। छात्र-रंगकर्मियों का प्रशिक्षण, नाट्य-निर्माण की प्रक्रियाएँ तथा मंच-निर्माण/लाइटिंग/ध्वनि जैसी व्यावहारिक बातें कैंपस थिएटर की गतिविधियों का हिस्सा रहीं। आपने न केवल निर्देशन किया बल्कि शैक्षिक-रूप से रंगमंच को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, कार्यशालाएँ और शोध गतिविधियों से जोड़ने का प्रयास भी किया। जिसके लिए रंगमंच एवं फ़िल्म प्रभाग के स्थापना और संचालन में वे एक नियोजक के रूप में जुड़े रहे, जिससे फिल्म और थिएटर पर शोध जैसी योजनाएँ विश्वविद्यालय में आ सकीं। आप सक्रिय मेंटॉर और ईमानदार मार्गदर्शक रहे हैं। 

आपने विश्वविद्यालय के Theatre and Film Centre के काम में फ़िल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया पूना  और सट्याजित रे फ़िल्म टेलीविजन इंस्टीट्यूट कोलकाता जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के एक्सपर्ट्स के साथ तालमेल कर आपने अपने कैंपस-थिएटर कार्य को श्रेष्ठ  पेशेवर संस्थानों से जोड़ने की कोशिश की ताकि छात्रों को व्यावसायिक मानकों का प्रशिक्षण मिल सके। आप भारतेन्दु नाट्य अकादमी लखनऊ में पाश्चात्य रंगमंच के अतिथि प्राध्यापक थे। आपके छात्र रंगमंच और फिल्मों में विशेष और उल्लेखनीय कार्य नियमित रूप से कर रहे है जिनमें तिग्मांशू धूलिया, गोविन्द सिंह यादव, शशि भूषण, मनोज पाण्डेय (कथाकार) आदि प्रमुख हैं।

जावेद ज़ैदी : भोपाल के रंगमंच का सजीव स्वप्न

जावेद ज़ैदी : भोपाल के रंगमंच का सजीव स्वप्न

जावेद ज़ैदी मध्य भारत के रंगकर्म से जुड़े उन महत्वपूर्ण नामों में हैं जिन्होंने नाटक को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक संवाद का माध्यम माना। दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उन्होंने भोपाल को अपनी कर्मभूमि बनाया और रंगकर्म को नई भूमि प्रदान की ।

भारत भवन के रंगमंडल से उनका गहरा जुड़ाव रहा। आप भारत भवन रंगमंडल के प्रमुख रहे। भारत भवन, भारतीय सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र है, वहाँ जावेद भाई ने अनेक प्रयोगात्मक प्रस्तुतियों में ब0 व0 कारंथ, हबीब तनवीर, फ्रिट्ज बेनेविट्ज़, अलखनंदन आदि के प्रमुख सहयोगी रहे । आपका दृष्टिकोण मंच को यथार्थ और स्वप्न के बीच की जगह बनाना था—जहाँ समाज की जटिलताएँ, मानवीय संवेदनाएँ और विरोधी स्वर भी मिलते हैं।

आपने भोपाल में ‘संभावना रंग समूह’ की स्थापना की, जो आपके निर्देशन में मध्यप्रदेश का एक सशक्त नाट्य-समूह बना। इस समूह ने एक टूटी हुई कुर्सी, टोपी शुक्ला, इस साले साठे का क्या करूँ, मुगलों ने सल्तनत बख्स दी, आदि प्रमुख नाटकों की प्रस्तुति की। साथ ही अलखनंदन जी के निर्देशन में रामेश्वर प्रेम जी के नाटक 'चारपाई' में बूढ़े की मुख्य भमिका के लिए आपको सदैव याद किया जाता है। आपके नाटकों में समकालीन समाज की विडंबनाएँ, राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियाँ और व्यक्ति की आत्मिक खोज झलकती है। ज़ैदी जी की शैली में संवाद की गहराई, दृश्यबोध की संवेदनशीलता और अभिनेता के मनोविज्ञान की सटीक पकड़ दिखाई देती थी। नाट्य प्रस्तुति 'एक टूटी हुई कुर्सी' ने दर्शकों और समीक्षकों दोनों को आकर्षित किया — इसमें टूटती हुई सत्ता और टूटते हुए विश्वास की प्रतीकात्मक कथा थी। उनके नाटक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और रंगभाषा की परिपक्वता का उदाहरण हैं। 2014 में जब वे विजय तेंदुलकर का नाटक कमला भारत भवन में प्रस्तुत करने की तैयारी में थे, तभी बीमारी के चलते उनका निधन हो गया। और “भोपाल रंगमंच का महत्वपूर्ण स्तंभ” टूट गया।

जावेद ज़ैदी का रंगकर्म एक सेतु की तरह थे पारंपरिक भारतीय रंगपरंपरा और आधुनिक विचारधारा के बीच। उन्होंने थिएटर को लोकजीवन, राजनीति और मनोविज्ञान के सम्मिलित बिंब के रूप में देखा। उनकी स्मृति आज भी भोपाल के मंचों, कलाकारों और दर्शकों के बीच जीवित है — एक ऐसे कलाकार के रूप में जिसने थिएटर को जीवन की सच्चाई से जोड़ा।

अलखनन्दन: लेखक, निर्देशक, पत्रकार और रंगमंच के सिद्धांतकार

अलखनन्दन: लेखक, निर्देशक, पत्रकार और रंगमंच के सिद्धांतकार

भारतीय रंगमंच का इतिहास जितना शास्त्रीय परंपराओं से समृद्ध है, उतना ही आधुनिक युग में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों से भी प्रभावित रहा है। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दी रंगमंच को जिन कलाकारों ने नयी दिशा दी, उनमें अलखनन्दन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे केवल मंचीय निर्देशक ही नहीं बल्कि लेखक, पत्रकार, शिक्षक, रंग-चिन्तक, कवि और सिद्धांतकार भी थे।
उनकी दृष्टि में रंगमंच केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि लोक-संस्कृति, सामाजिक चेतना और कलात्मक प्रयोगों का संगम था। ग्रामीण अंचलों में रंगकर्म को पहुँचाना, लोक नाट्य स्वाँग और बुंदेलखण्डी नाट्य-शैलियों को पुनर्जीवित करना, बाल-रंगमंच को प्रोत्साहन देना और शहरी-ग्रामीण दर्शकों के बीच संवाद स्थापित करना उनके कार्य की विशेषता रही।
अलखनन्दन जी का जन्म बिहार के में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा स्थानीय विद्यालयों में प्राप्त करने के बाद वे साहित्य और रंगमंच की ओर प्रवृत्त हुए। रंगकर्म की शुरुआत उन्होंने पत्रकारिता के साथ की—सामाजिक मुद्दों पर लिखते हुए उन्हें समझ में आया कि रंगमंच जनता तक सीधे पहुँचने का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम हो सकता है। उनका रंगमंचीय सफर जबलपुर और भोपाल जैसे सांस्कृतिक नगरों से जुड़ा।
मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में विवेचना के लिए नाटकों का निर्देशन किया और बाद में भारत भवन रंगमंडल में सहायक निदेशक के रूप में कार्य किया। फिर नटबुंदेले रंग संस्था की स्थापना की। आप भारतेन्दु नाट्य अकादमी और पंजाब विश्वविद्यालय के नाट्य विभाग में अतिथि निर्देशक के रूप में कार्य किया। उर्दू थिएटर ट्रस्ट, बंगलौर तथा देश के कई संस्थानों में नाट्य कार्यशालाएँ संचालित कीं।
अलखनन्दन जी ने कई नाटक लिखे जिनमें उनके सामाजिक सरोकार और व्यंग्यात्मक दृष्टि स्पष्ट दिखती है: चंदा बेड़नी – समाज के हाशिये पर जी रही महिला की कथा। राजा का स्वांग, उजबक राजा, तीन डकैत, स्वांग मल्टीनेशनल, स्वांग शकुंतला – सत्ता, भ्रष्टाचार और व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार दिखता है। उनके लेखन में भाषा का लोकजीवन से जुड़ा सरल, प्रभावी और हास्य-व्यंग्य मिश्रित स्वरूप मिलता है।
निर्देशक के रूप में उनकी प्रतिभा ने हिन्दी रंगमंच को नए प्रयोगों से परिचित कराया। उन्होंने न केवल अपने नाटक बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय लेखकों के नाटक भी मंचित किए: वेटिंग फ़ॉर गोड़ो का छत्तीसगढ़ी अनुवाद गौड़ा ला देखत हन, महानिर्वाण, मगध, ताम्रपत्र, सुपनवा का सपना, चारपाई,ताँबे के कीड़े, काव्यरंग, अँडोरा,  अखाड़े के बाहर, भगवदज्जुकम्, उजबक राजा तीन डकैत आदि प्रमुख हैं उनके निर्देशन में नाटकों की दृश्य संरचना, लोकगीतों और संगीत का प्रयोग, मंच सज्जा और अभिनेताओं का जीवंत संवाद दर्शकों को मोहित कर आकर्षित करता था।
बच्चे कल नौजवान होंगे, अलखनन्दन की सबसे बड़ी देन बाल रंगमंच है। उन्होंने बच्चों के लिए अनेक नाटक लिखे और प्रस्तुत किए: जिनमें सलोनी गौरेया, जादू का सूट, नारद जी फँसे चकल्लस में, मूरख गुरु के मूरख चेले, अक्ल से सबकी करो भलाई, भेड़िया तंत्र, हम हवाएँ, हमारी पृथ्वी इत्यादि। आप बच्चों की रंग-प्रतिभा को विकसित करने के लिए कार्यशालाएँ आयोजित करते और उन्हें मंच पर लाने का साहसिक प्रयास करते थे।
अलखनन्दन जी ने बुंदेलखण्डी स्वांग जैसी लुप्तप्राय लोकनाट्य शैलियों को पुनर्जीवित किया। 1992-96 के बीच भारत सरकार की वरिष्ठ फेलोशिप उन्हें स्वांग पर शोध और उसके पुनराविष्कार के लिए प्रदान की गई। आप मानते थे कि लोक परंपराएँ भारतीय रंगमंच की आत्मा हैं और वर्तमान आधुनिक नाटक को लोक नाटकों से शक्ति लेनी चाहिए। अलखनन्दन जी  की रंग दृष्टि और रंग-चिन्तन में कुछ मुख्य सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं: 
नाटक को समाज की समस्याओं, वर्गीय-जातीय असमानताओं और मानवीय अन्याय पर विचार करना चाहिए। स्वांग, लोकगीत, लोकभाषा और कथावाचन शैली को आधुनिक नाटकों में समावेश कर दर्शकों के निकट लाना। पारंपरिक मंचन के साथ नयी तकनीक, दृश्य संरचना और कथावाचन की शैलियों का प्रयोग। बच्चों और युवाओं के लिए रंगमंच को शिक्षा और व्यक्तित्व निर्माण का साधन बनाना। आप मानते थे कि नाटक केवल भावनाओं का विस्फोट नहीं बल्कि एक सुसंगठित कला है जिसमें अभिनय, वेशभूषा, संगीत, प्रकाश और संवाद सभी घटक एक समग्र रूप देते हैं।

अलखनन्दन जी के रंगमंचीय योगदान के  अनेक राष्ट्रीय-राज्य स्तरीय सम्मान मिले जिनमें मध्यप्रदेश शासन का शिखर सम्मान (2006), मास्टर फिदा हुसैन नरसी सम्मान, श्रेष्ठ कला-आचार्य सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (निर्देशन), लाइफ-टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड आदि।
अपने जीवन के अंतिम समय तक रंगमंच के प्रति सक्रिय रहे। अलखनन्दन जी हिन्दी रंगमंच के जनपक्षधर, प्रयोगशील और लोकाभिमुख रंगकर्मी थे। उन्होंने लेखक, निर्देशक, पत्रकार और सिद्धांतकार के रूप में भारतीय रंगमंच को गहराई दी।
उनके नाटकों में व्यंग्य, हास्य और लोकभाषा का प्रयोग है तो उनके निर्देशन में अनुशासन, लोकसंगीत और नवाचार की झलक है। आप मानते थे कि रंगमंच जीवन से अलग नहीं हो सकता। उनकी दृष्टि में नाटक एक सामाजिक संवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का औजार है। उनके विचार और कार्य आज भी रंगकर्मियों के लिए मार्गदर्शक हैं।

मुस्कुराता हुआ, ज़िम्मेदार, सांस्कृतिक व्यक्तित्व

मुस्कुराता हुआ, ज़िम्मेदार, सांस्कृतिक व्यक्तित्व

सुनील मिश्र प्रतिष्ठित फ़िल्म आलोचक, सांस्कृतिक पत्रकार, और मध्य प्रदेश की संस्कृति क्षेत्र से जुड़े व्यक्तित्व थे। आप भोपाल मध्यप्रदेश से सक्रिय रहे और कला-संस्कृति की दुनिया में आपकी उपस्थिति की अहमियत थी। सुनील मिश्र को “गंभीर सिनेमा” पर लेखन के लिए जाना जाता था। लगभग बीस वर्ष से अधिक समय से सिनेमा-विश्लेषणात्मक लेख लिखे; आपके लेख नियमित रूप से राष्ट्र के लोकप्रिय और प्रतिष्ठित अख़बारों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आप समीक्षा-विश्लेषण, सिनेमा-संवाद और सिनेमा-कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से शामिल रहे। आकाशवाणी, दूरदर्शन और अन्य चैनलों के लिए सिनेमा-केंद्रित कार्यक्रमों का समन्वय-संयोजन किया। साथ ही हवलदार महावीर प्रसाद, गजमोक्ष, ऐसे रहो की धरती, शबरी, सतरूपा आदि नाटकों की रचना की।
सुनील मिश्र “माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय” में पत्रकारिता एवं सिनेमा का पाठ पढ़ाते रहे, आपकी लेखन शैली गहराई, शोधपरक दृष्टिकोण और सोच-विमर्श युक्त होती थी। आपकी कल और साहित्य के प्रति जुनून के कारण ही इंस्टाग्राम पर 100 से अधिक कलाकारों के लाइव साक्षात्कार किए थे, जिन्हें व्यूअर्स ने सहर्ष स्वीकारा। आपको “सिनेमा पर समीक्षा लेखन की श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। सुनील मिश्र की भाषा न तो अज्ञेय की तरह साहित्यिक और बौद्धिक है और ना ही निर्मल वर्मा की भाषा की तरह मदमाती है परन्तु आपकी सरलता प्रत्येक वाक्य के उद्घाटन और समापन में दिखती है। हम सभी के लिए आप सुनील भाई थे सहज प्राप्त होने वाले हितकारी थे।
आपका निधन कोरोना महामारी के समय हुआ, जिससे प्रदेश की कला और संस्कृति क्षेत्र में आई रिक्तता आज भी मस्तिष्क में गूंज मचाती रहती है। नाटक, कला, साहित्य और संस्कृति जगत से जुड़े लोग उन्हें एक सक्रिय, मुस्कुराते हुए, ज़िम्मेदार सांस्कृतिक व्यक्तित्व कहते थे आपकी लेखनी, समीक्षा-शैली और सिनेमा-संवाद की विरासत आज भी हम लोगों को प्रेरणा देती है जो निरन्तर कला और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय हैं। आप मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग में कार्यरत थे। विज्ञान एवं तकनीकी शब्दावली आयोग (भारत सरकार) द्वारा सिनेमा एवं रंगमंच पर बनाए गए परिभाषा-कोश की सलाहकार समिति में आपका नाम भी शामिल है
आप मध्यप्रदेश में संस्कृति की उर्वर भूमि के मेहनतकश कृषक थे आपने प्रदेश के गीत,संगीत, नृत्य, कविता, साहित्य, कला सभी को समान सम्मान दिया।

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

सृजनधर्मी सिद्धेश्वर अवस्थी : शब्द, रंग और शिल्प के साधक

कानपुर की सांस्कृतिक चेतना में स्वर्गीय सिद्धेश्वर अवस्थी का नाम एक बहुरंगी रचनाकार के रूप में आदर से लिया जाता है। वे केवल उपन्यासकार नहीं थे; वे नौटंकी-लेखक-निर्देशक, शिल्पकार और सांस्कृतिक पत्रकार भी थे। उनके भीतर रचनात्मकता शब्दों से बाहर निकलकर मंच, वस्तु-शिल्प और समाज की धड़कनों तक फैली हुई थी। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ किसी एक विधा की सीमा में बँधी नहीं रहीं—वे स्वयं अपने समय के जीवंत सांस्कृतिक आन्दोलन की तरह दिखाई देते हैं।

सिद्धे गुरु शब्द उनकी कनपुरिया पहचान थी आपका जीवन कानपुर की धरती, वहाँ की लोकसंस्कृति और नगर की औद्योगिक-सामाजिक हलचलों से गहरे जुड़ा रहा। साहित्य उनके लिए केवल काग़ज़ पर विचारों का खेल नहीं था; वह समाज की साँस-धड़कनों को पकड़ने का माध्यम था। वे मंच पर नौटंकी लिखते और निर्देशित करते हुए जैसे समाज की बोलचाल, गीत, दुख-सुख को सीधे दर्शकों तक पहुँचाते थे। इसी अनुभव ने उन्हें स्थानीय बोली, हाव-भाव और यथार्थ को समझने की सहज दृष्टि दी।
संवेदना और प्रतीक उनका चर्चित उपन्यास ‘नीलकंठ’ कहानी से अधिक संवेदनाओं का दस्तावेज़ है। ‘नीलकंठ’ नाम स्वयं में भारतीय स्मृति के कई प्रतीकों को जगाता है—त्याग, विषपान, दर्द को अपने भीतर समेटकर भी जीवन के प्रति सजग रहना। उपन्यास में यह नाम केवल शीर्षक नहीं, बल्कि एक दार्शनिक संकेत है: मनुष्य के भीतर झेलने-सहने और फिर भी अडिग रहने की शक्ति का। भाषा संपन्न, सुदृढ़, और लालित्य से ओतप्रोत है यह प्रेम के विरह को वियोग और श्मशान वैराग्य के रूप में देखता है इस कृति ने उन्हें नगर-जनपद के साहित्यिक परिदृश्य में एक समर्थ रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित किया।
नौटंकी लेखन और निर्देशन में आपने लोकनाट्य की नयी भाषा गढ़ी। सिद्धेश्वर अवस्थी ने नौटंकी को केवल मनोरंजन नहीं माना। उन्होंने इस परंपरागत लोकनाट्य के भीतर जीवन की सच्चाइयों और सामाजिक सवालों को जगह दी। उनकी रचनाएँ सहज लोकधुनों, तीखी व्यंग्य-रेखाओं और मार्मिक संवादों से सजी रहती थीं। निर्देशन में वे मंचीय अनुशासन और दर्शक-संवाद दोनों को बराबर महत्त्व देते थे। उनके निर्देशन में नौटंकी एक जागरूक कला बनती थी—जहाँ लोकगीतों की लय के बीच सामाजिक सरोकार मुखर होते थे।
आपकी शिल्पकला लोकसर्जना का दुर्लभ उदाहरण है साहित्य और मंच के साथ-साथ अवस्थी जी की रचनात्मकता वस्तु-शिल्प में भी दिखाई देती थी। नारियल से शिल्प निर्माण उनकी विशिष्ट पहचान बनी। साधारण-सी वस्तु को कलात्मक स्पर्श देकर जीवंत आकृतियों और सजावटी कलाकृतियों में बदल देना उनकी सूक्ष्म दृष्टि और साधन-संपन्नता का प्रमाण है। यह कला उनके भीतर के लोक-सृजनधर्मी शिल्पकार को उजागर करती है—जो हर चीज़ में सुंदरता और उपयोगिता खोज लेता है।
समाज की नब्ज़ पर सदैव धवल दृष्टि रखने वाले पत्रकार के रूप में अवस्थी जी ने संस्कृति और समाज के बदलते परिदृश्यों पर लगातार लिखा। उनकी लेखनी में तथ्य-सत्य की स्पष्टता के साथ लोक-अनुभूति की गर्माहट रहती थी। वे केवल घटनाओं की रिपोर्ट नहीं करते थे; बल्कि उनके पीछे छिपे सांस्कृतिक बदलावों और मानवीय पक्षों को भी रेखांकित करते थे। इस दृष्टि ने उनके साहित्य को भी सामाजिक यथार्थ और समसामयिक चेतना से जोड़े रखा।

बहुआयामी कृतित्व की विरासत

सिद्धेश्वर अवस्थी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने शब्द, रंगमंच, शिल्प और पत्रकारिता—सभी को एक साझा सांस्कृतिक दृष्टि में पिरोया। उनके लेखन में साहित्य की मार्मिकता है, नौटंकी में जन-संपृक्ति, शिल्प में सहज रचनात्मकता और पत्रकारिता में सत्य-सचेत दृष्टि। वे हमें बताते हैं कि कला किसी एक माध्यम की बपौती नहीं; वह समाज की ज़रूरतों और संवेदनाओं के साथ अनेक रूप धरती है।
आज जब हम सिद्धेश्वर अवस्थी को स्मरण करते हैं तो वे किसी एक विधा के लेखक या कलाकार के रूप में नहीं, बल्कि कानपुर की लोकसंस्कृति के बहुआयामी शिल्पी के रूप में सामने आते हैं। उनका उपन्यास नीलकंठ शब्दों की संवेदना है; उनकी नौटंकी रंगमंच पर बोलती जनता की आवाज़; उनके नारियल-शिल्प कला की सहज आत्मीयता; और उनकी पत्रकारिता हमारे समय के यथार्थ का सजीव दस्तावेज़।
साहित्य और समाज के ऐसे साधकों की स्मृति हमारे लिए न केवल गौरव का विषय है, बल्कि यह प्रेरणा भी कि रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं होती—बस एक सच्चे कलाकार को हर माध्यम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती रहे।
सिद्धेश्वर जी के कृतित्व से परिचय बड़े भाई
Sunil Mishr द्वारा करवाया गया था।
Malini Awasthi