रविवार, 5 अक्टूबर 2025

सृजनधर्मी सिद्धेश्वर अवस्थी : शब्द, रंग और शिल्प के साधक

कानपुर की सांस्कृतिक चेतना में स्वर्गीय सिद्धेश्वर अवस्थी का नाम एक बहुरंगी रचनाकार के रूप में आदर से लिया जाता है। वे केवल उपन्यासकार नहीं थे; वे नौटंकी-लेखक-निर्देशक, शिल्पकार और सांस्कृतिक पत्रकार भी थे। उनके भीतर रचनात्मकता शब्दों से बाहर निकलकर मंच, वस्तु-शिल्प और समाज की धड़कनों तक फैली हुई थी। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ किसी एक विधा की सीमा में बँधी नहीं रहीं—वे स्वयं अपने समय के जीवंत सांस्कृतिक आन्दोलन की तरह दिखाई देते हैं।

सिद्धे गुरु शब्द उनकी कनपुरिया पहचान थी आपका जीवन कानपुर की धरती, वहाँ की लोकसंस्कृति और नगर की औद्योगिक-सामाजिक हलचलों से गहरे जुड़ा रहा। साहित्य उनके लिए केवल काग़ज़ पर विचारों का खेल नहीं था; वह समाज की साँस-धड़कनों को पकड़ने का माध्यम था। वे मंच पर नौटंकी लिखते और निर्देशित करते हुए जैसे समाज की बोलचाल, गीत, दुख-सुख को सीधे दर्शकों तक पहुँचाते थे। इसी अनुभव ने उन्हें स्थानीय बोली, हाव-भाव और यथार्थ को समझने की सहज दृष्टि दी।
संवेदना और प्रतीक उनका चर्चित उपन्यास ‘नीलकंठ’ कहानी से अधिक संवेदनाओं का दस्तावेज़ है। ‘नीलकंठ’ नाम स्वयं में भारतीय स्मृति के कई प्रतीकों को जगाता है—त्याग, विषपान, दर्द को अपने भीतर समेटकर भी जीवन के प्रति सजग रहना। उपन्यास में यह नाम केवल शीर्षक नहीं, बल्कि एक दार्शनिक संकेत है: मनुष्य के भीतर झेलने-सहने और फिर भी अडिग रहने की शक्ति का। भाषा संपन्न, सुदृढ़, और लालित्य से ओतप्रोत है यह प्रेम के विरह को वियोग और श्मशान वैराग्य के रूप में देखता है इस कृति ने उन्हें नगर-जनपद के साहित्यिक परिदृश्य में एक समर्थ रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित किया।
नौटंकी लेखन और निर्देशन में आपने लोकनाट्य की नयी भाषा गढ़ी। सिद्धेश्वर अवस्थी ने नौटंकी को केवल मनोरंजन नहीं माना। उन्होंने इस परंपरागत लोकनाट्य के भीतर जीवन की सच्चाइयों और सामाजिक सवालों को जगह दी। उनकी रचनाएँ सहज लोकधुनों, तीखी व्यंग्य-रेखाओं और मार्मिक संवादों से सजी रहती थीं। निर्देशन में वे मंचीय अनुशासन और दर्शक-संवाद दोनों को बराबर महत्त्व देते थे। उनके निर्देशन में नौटंकी एक जागरूक कला बनती थी—जहाँ लोकगीतों की लय के बीच सामाजिक सरोकार मुखर होते थे।
आपकी शिल्पकला लोकसर्जना का दुर्लभ उदाहरण है साहित्य और मंच के साथ-साथ अवस्थी जी की रचनात्मकता वस्तु-शिल्प में भी दिखाई देती थी। नारियल से शिल्प निर्माण उनकी विशिष्ट पहचान बनी। साधारण-सी वस्तु को कलात्मक स्पर्श देकर जीवंत आकृतियों और सजावटी कलाकृतियों में बदल देना उनकी सूक्ष्म दृष्टि और साधन-संपन्नता का प्रमाण है। यह कला उनके भीतर के लोक-सृजनधर्मी शिल्पकार को उजागर करती है—जो हर चीज़ में सुंदरता और उपयोगिता खोज लेता है।
समाज की नब्ज़ पर सदैव धवल दृष्टि रखने वाले पत्रकार के रूप में अवस्थी जी ने संस्कृति और समाज के बदलते परिदृश्यों पर लगातार लिखा। उनकी लेखनी में तथ्य-सत्य की स्पष्टता के साथ लोक-अनुभूति की गर्माहट रहती थी। वे केवल घटनाओं की रिपोर्ट नहीं करते थे; बल्कि उनके पीछे छिपे सांस्कृतिक बदलावों और मानवीय पक्षों को भी रेखांकित करते थे। इस दृष्टि ने उनके साहित्य को भी सामाजिक यथार्थ और समसामयिक चेतना से जोड़े रखा।

बहुआयामी कृतित्व की विरासत

सिद्धेश्वर अवस्थी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उन्होंने शब्द, रंगमंच, शिल्प और पत्रकारिता—सभी को एक साझा सांस्कृतिक दृष्टि में पिरोया। उनके लेखन में साहित्य की मार्मिकता है, नौटंकी में जन-संपृक्ति, शिल्प में सहज रचनात्मकता और पत्रकारिता में सत्य-सचेत दृष्टि। वे हमें बताते हैं कि कला किसी एक माध्यम की बपौती नहीं; वह समाज की ज़रूरतों और संवेदनाओं के साथ अनेक रूप धरती है।
आज जब हम सिद्धेश्वर अवस्थी को स्मरण करते हैं तो वे किसी एक विधा के लेखक या कलाकार के रूप में नहीं, बल्कि कानपुर की लोकसंस्कृति के बहुआयामी शिल्पी के रूप में सामने आते हैं। उनका उपन्यास नीलकंठ शब्दों की संवेदना है; उनकी नौटंकी रंगमंच पर बोलती जनता की आवाज़; उनके नारियल-शिल्प कला की सहज आत्मीयता; और उनकी पत्रकारिता हमारे समय के यथार्थ का सजीव दस्तावेज़।
साहित्य और समाज के ऐसे साधकों की स्मृति हमारे लिए न केवल गौरव का विषय है, बल्कि यह प्रेरणा भी कि रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं होती—बस एक सच्चे कलाकार को हर माध्यम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती रहे।
सिद्धेश्वर जी के कृतित्व से परिचय बड़े भाई
Sunil Mishr द्वारा करवाया गया था।
Malini Awasthi

शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

खुशबू

खुशबू नहीं मिलती, कभी आमद नहीं मिलती।
इन्सान हैं ये, इनकी प्रीति नहीं मिलती।

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

कला के नाम

कला की भक्ति आत्म का रुपांतरण मुक्त करने की बात करती है।

भक्ति का फूल प्रेम के पौधे में खिलता है और  शनैः शनैः निखरता है l यदि कला के प्रति तुम्हारा प्रेम गहरा हो तो कला का भाव अर्थपूर्ण  हो जाता है यह इतना  अर्थपूर्ण हो जाता है कि हम कला को ही अपना भगवान अपना इष्ट कहने लगते हैं l यही कारण है कि मीरा, सूरदास, रहीम, तुलसीदास आदि अपने अपने इष्ट को प्रभु कहते जाते है l इष्ट को न कोई देख सकता है, और न कोई साक्षात सिद्ध कर सकता है कि कृष्ण या राम वहां हैं; इधर मीरा, सूरदास, रहीम या तुलसीदास इस प्रेम को  सिद्ध करने में उत्सुक भी नहीं है। सबने अपने इष्ट को ही अपने निःस्वार्थ प्रेम का विशेष पात्र बना लिया है l
 और याद रहे, हम जब किसी यथार्थ व्यक्ति को अपने प्रेम का पात्र बनाते है या किसी कल्पना के व्यक्ति को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है l कारण यह है कि यह दृश्य रूप में सारा रुपांतरण भक्ति के माध्यम से आता है, प्रेम में पात्र के माध्यम से नहीं l इस बात को सदा स्मरण रखो की यहां  कृष्ण या राम की शारीरिक उपस्थिति आवश्यक नहीं हैं; प्रेम के लिए शारिरिक उपस्थिति अप्रासंगिक है l हम एक बात जोर देकर कहना चाहते हैं कि इष्ट के होने या न होने का प्रश्न नहीं है, बिल्कुल नहीं है, भाव ही इष्ट है, समग्र प्रेम का भाव,  समग्र समर्पण, किसी में अपने को विलीन कर देना, चाहे वह हो या ना हो, विलीन हो जाना ही रुपांतरण है l अचानक व्यक्ति शुद्ध हो जाता है, समग्ररूपेण शुद्ध हो जाता है l क्योंकि जब अहंकार ही नहीं है तो तुम किसी रूप में भी अशुद्ध नहीं हो सकते l अहंकार ही सब अशुद्धि का बीज है l भाव के जगत के लिए, भक्त के जगत के लिए अहंकार रोग है। अहंकार एक ही उपाय से विसर्जित होता है _  कोई दूसरा उपाय नहीं है_वह उपाय यह है कि कला इतनी महत्वपूर्ण हो जाएं इतनी महिमापूर्ण हो जाएं कि हम धीरे-धीरे विलीन हो जाएं, और एक दिन हम बिल्कुल ही न बचे, सिर्फ हमारा बोध रह जाए l और जब हमही न रहे तब  कला सिर्फ कला नहीं रह जाती है क्योंकि कला तब तक अलग है जब तक हम अलग हैं l 
जब मैं इस नश्वर संसार से विदा होऊंगा तब मेरे साथ ही मेरी इष्ट कला  तू भी विदा हो जाएगीl अर्थात प्रेम भक्ति बन जाएगाl प्रेम ही इष्ट से साक्षात्कार का पहला कदम है।

मंगलवार, 7 मई 2024

जीवन

जीवन में सिर्फ सुबह और रात होती है।
मुस्कुराते, मुस्कुराते ही वो चले जाते हैं।

मनोज कुमार मिश्रा

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

मां


पैरों के घुटने और नींद।
संसार के व्योम में होम हो गए।।
आंचल, हार, पाजेब, करधन सब था।
पर मेरे पास उनकी अपनी खास चप्पलें।
जिन पर स्थापित, देवी होती वो स्वयं।।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

शेर

न होठों में हरकत, न ज़ुबा में जुम्बिश
बस नज़रें मिली और बात हो गई।।

रविवार, 16 अक्टूबर 2022

श्रेष्ठ


श्रेष्ठ


सफलता के अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकृति होती है और समय के साथ बदलती रहती है

सफलता के अलग अलग विभिन्न स्तर होते है एक दिन में प्राप्त नहीं होती है और सफलता जीवन की कुछ इच्छाओं की आहूतियाँ मांगती है। जिसे देना पड़ेगा। इसलिए स्वयं कोई सफल नहीं होता बल्कि अन्य लोगों की दृष्टि में सफल होता हैI सफलता के हमारे मानक अपने आगे के पायदान में खड़े व्यक्ति को ही देखता है।