कहते है वो पसन्द आई तेरी सिपहसालारी। यहाँ तो मुद्दतों से बस खटते आये है। न हो यकीन तो? घरों की दीवारों से पूंछ लो। उस पर न मेरा हक़ है न तस्वीर....................…............. गुलाम का ख़त
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें