मंगलवार, 4 नवंबर 2025

हँसी की विदूषक-उड़ान: बंसी कौल की रंगभूमि, प्रयोग और संवेदना

हँसी की विदूषक-उड़ान: बंसी कौल की रंगभूमि, प्रयोग और संवेदना कश्मीर-जड़ों से निकलकर लोक-हँसी, विदूषक-परंपरा व शारीरिक अभिव्यक्ति के माध्यम से हिन्दी-रंगमंच में नया क्षितिज खोलने वाले बंसी कौल के रंग-साधना-यात्रा|

मंच पर एक विदूषक जब मुखौटा पहनता है, तब सिर्फ हँसी उत्पन्न नहीं होती—वह संवेदना, चिंतन और लोक-स्मृति का भी आरंभ होती है। बंसी कौल की रंग-जगत में यह विदूषक-उड़ान उसी दिशा की ओर इशारा करती है। उनके नाट्य-अनुभव, प्रयोग-शैली, प्रशिक्षण-दृष्टि और दृश्य-निर्माण ने हिन्दी रंगमंच को सिर्फ नया रूप नहीं दिया बल्कि एक नया मनोसेतु स्थापित किया। इस लेख में हम उनकी रंगकर्म-यात्रा को उस सतह से उठाकर देखेंगे जहाँ लोक, हँसी, मंच-दृष्टि और सामाजिक-साक्ष्य आपस में पूर्णता से मिलने लगे।

बंसी कौल का जन्म 23 अगस्त 1949 को श्रीनगर (जम्मू एवं कश्मीर) में हुआ। एक कश्मीरी पंडित-परिवार से आने वाले कौल बचपन से चित्रकला-रंग और अभिनय-उत्सव के प्रति संवेदनशील थे। दिल्ली आकर National School of Drama (NSD) में स्टेजक्राफ्ट में शिक्षा ली और वहाँ से स्नातक हुए। उनकी पृष्ठभूमि ने उनके मन में मंच-स्थान, देह-भाषा, दृश्य-निर्माण और लोक-शैलियों के प्रति गहरी संवेदना जगाई। उनकी प्रारंभिक रंग-खोज केवल अभिनेता-भूमि तक सीमित नहीं रही; वे डिज़ाइन-मंच, स्थल-संकल्प, लोक-हँसी-निर्माण तक विस्तारित हुई।

1984 में उन्होंने भोपाल में अपनी संस्था Rang Vidushak की स्थापना की। संस्था का उद्देश्य था: “जहाँ हँसी नया उत्सव-भाषा बने।” 
“For the stage artist, Proscenium Barrier must be broken in the mind first, rather than the body.”
इसका अर्थ यह था कि दर्शक-मंच विभाजन सिर्फ फिजिकल नहीं—मानसिक भी है। उन्होंने लोक-खेल, जोकर-हँसी, ग्रामीण-खेल, रस-गीतों और मिथकों को आधुनिक रंगभाषा में समाहित किया। रंग विदूषक ने सिर्फ प्रदर्शन नहीं की, बल्कि कलाकार-प्रशिक्षण, स्थल-शोध, लोक-अनुभव-रूपांतरण भी किया।

कौल की रंगदृष्टि ने मनोरंजन और चिंतन के बीच सेतु बनाया। उन्होंने रंगमंच को सिर्फ ‘दिखाने’ का माध्यम नहीं माना, बल्कि जीने, सोचने, साझा अनुभव बनाने का। आपने हँसी को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि विप्लव-भाषा बनाया। आपके नाटकों में नौटंकी, भवई-परंपरा, विदूषक-शैली और संघर्ष है। नाटको के मंचन केवल शहरी-मंच में नहीं, बल्कि गाँव-मंच, खुला-मंच, अवहेलित-स्थल में करने का प्रयास करते रहे। अक्सर वो एक उद्धरण दिया करते थे कि ‘विदूषक’ को सिर्फ जोकर नहीं बनाया है—बल्कि मंच-चिंतक बनाना चाहता हूँ। इस दृष्टि से उनका रंगमंच ‘हँसकर - सोचने’ का स्थान बना।
 आपने रूस के निकोलाई गोगोल के द गवर्नमेंट इंस्पेक्टर नाटक को आदरणीय मुद्रा राक्षस जी से “आला अफसर” के रूप में लिखवाया। बंसी दादा ने आला अफसर को  नौटंकी-शैली में प्रस्तुत किया। कहन कबीर संत कबीर की रचनाओं पर आधारित नाटक है इसमें लोक-भाषा, भक्ति-चिंतन और सामाजिक-संदर्भ मिश्रित रूप में दिखते है। “सीढ़ी दर सीढ़ी उर्फ तुक्के पर तुक्का” चीनी लोककथा के आधार पर हिन्दी-मंच में रूपांतरित अद्भुत नाटक बनाया है। साथ ही सौदागर, पगलाए गुस्से का धुआँ, एक तारा टूटा, शबे तार, शर्विलक, मस्त कलंदर, तमंचा खान की ग़जब दास्तान, पल एक हंसी का, खेल गुरु का, रंग बिरंगे जूते आदि प्रमुख नाटक हैं जिनमें से कुछ नाटकों में लेखन में भी अपना रंग चढ़ाया। आपको फोर्ड फाउंडेशन से प्राप्त सहयोग प्राप्त हुआ। बंसी जी  ने रंग-शिक्षा को सिर्फ तकनीकी प्रशिक्षण नहीं माना, बल्कि जीवन-अनुभव का मंच माना। आपके नाटको में न्यून संसाधन से मंच पर अधिक प्रभावी लगाने लगते थे। कलाकार को पहले “मनुष्य” बनना है। बंसी जी केवल निर्देशक नहीं बल्कि दृश्‍य-निर्माता थे। उन्होंने मंच-डिजाइन, सेट-सैटिंग, मुख-सज्जा में नयापन लाया। आप 1986-87 में खजुराहो नृत्य महोत्सव के आर्ट-डायरेक्टर थे तथा 2010 के कॉमन वेल्थ गेम के उद्घाटन-समारोह में डिजाइन-टीम में शामिल थे। आपका मानना था कि कोई माध्यम सीमा नहीं, वरन अवसर है—चाहे बजट कम हो, मंच चालू-खुला हो।
आपके नाटकों की भाषा-शैली में अनूठा मिश्रण मिलता था — लघु एवं तीव्र संवाद, देह-भाषा का प्रयोग, लोक-उच्चार, और सहज-लोक-भाव। इस वजह से उनका रंगमंच ‘लोक’ और ‘शहर’ दोनों का था। लोक-हँसी को उन्होंने लोकप्रियता के साधन के रूप में नहीं, बल्कि संवेदन-भागी के रूप में देखा। उनके नाटकों में यही संतुलन था- मनोरंजन और विचार, खेल-हँसी और सामाजिक-चिंतन। आप हंसी एक उत्सव थे। कुल मिलाकर बंसी कौल की तकनीक रंगशिल्प में भराव लाती है। उनके निर्देशक, अभिकल्पक और दृश्यकल्पक व्यक्तित्व की अन्विति बनती है। कौल का रंग-मुहावरा देखने-सुनने में जितना सीधा-सरल लगता है, उतना ही दुरूह है। उसकी जड़ों के लिए उस जमीन की समझ आवश्यक ठहरती है, जिसमें वह गढ़ा गया
बंसी जी का रंगमंच सिर्फ कला-भूमि तक सीमित नहीं था; उसमें सामुदायिक-स्मृति, विस्थापन, लोक-विमर्श का समावेश था। उनकी आखिरी प्रस्तुति “पगलाए गुस्से का धुआँ” कश्मीर-पंडितों के विस्थापन पर आधारित थी। जिसे भारतेन्दु नाट्य अकादमी के छात्रों के साथ प्रस्तुत किया था इस समय मैं नाटक में प्रकाश परिकल्पना कर रहा था तो कहा कि मनोज तुम नाटक बन्द मत करना अभी तुम्हारे अंदर नाटक को खोजने की ललक बहुत भरी हुई है।

आपको मध्य प्रदेश सरकार से 1994 का शिखर सम्मान और उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से 1995 का सफदर हाशमी सम्मान संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1995 और पद्मश्री सम्मान 2014, कालिदास सम्मान 2016 में प्रदान किया गया। यदि रंगमंच को एक वृक्ष मान लें, तो बंसी कौल ने उसे ‘लोक-जड़’ से उगाया, ‘हँसी-फल’ से सजाया और ‘चिंतन-फल’ से परिरक्षित किया। उनके मंच-उपकरण-जोकर-मुखौटा, लोक-गीत, देह-प्रकाश-लय- केवल दृश्य-नाट्य नहीं बल्कि मानव-अनुभूति-माध्यम बने। उनकी अनुपस्थिति में भी उनकी छाया बनी हुई है — यह स्मरण कराती है कि लोक और आधुनिकता, हँसी और विचार, मंच और जीवन के बीच द्वंद्व नहीं, समन्वय हो सकता है।
 “थिएटर को सस्ता-पोस्टर नहीं, संवेदन-सूचना बनाना चाहिए।” – बंसी कौल 

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